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________________ प्रमेयधोतिका टीका ३५स. १३० सूक्ष्माणां कायस्थित्यादिनिरूपणम् १९९३ .. टीका-'सुहुमेणं भंते ! सुहुमेत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा! जहन्नेणं अंतो० उक्कोसेणं असंखेनं कालं' सूक्ष्मः खलु निगोदोवा भदन्त ! सूक्ष्म इति कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त तिष्ठति उत्कर्षेणाऽसंख्येयकालम् 'जाव असंखेज्जा लोया' यावदसंख्येया लोकाः, असंख्येया उत्सपिण्यवसर्पिण्यः एषा कालतो मार्गणा क्षेत्रतोऽसंख्येया लोकाः, असंख्येयलोकाकाशानां प्रतिसमयमे कैकाकाशप्रदेशापहारे यावता कालेन निर्लेपता ताबान्कालोऽसंख्येयकालः । 'सव्वेसिं पुढवीकालो जाव सुहुम णिओयस्स पुढवीकालो' सर्वेषां सूक्ष्मपृथिव्यादिजीवानां कायस्थिति धन्येनान्तर्मुहूर्तम् टीकार्थ-हे भदन्त ! यह सूक्ष्म जीव सूक्ष्म जीव हैं इस प्रकार से वह कितने काल तक कहा जा सकता है अर्थात् सूक्ष्म जीव की कायस्थिति कितनी है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव असंखेज्जा लोयो हे गौतम ! सूक्ष्मजीव की कायस्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट से असंख्यात काल और असंख्यातलोक प्रमाण है इस असंख्यात काल में असंख्यात उत्सपिणियां और असंख्यात अवसपिणियां आ जाती हैं तथा असंख्यात लोकाकाशों के जितने प्रदेश हैं उतने प्रदेशों में से प्रतिसमय एक २ प्रदेश वहां से निकालने पर जितने कालों में वे प्रदेश वहां से पूरे निकल आते हैं उतने काल की इसकी कायस्थिति है इसी का नाम असंख्यात काल है 'सव्वेसि पुढविकालो जाव सुहमणिओयस्स पुढविकालो' इसी तरह से समस्त ટીકાથ-હે ભગવન્! આ સૂફમજીવ સૂક્ષમ જીવ છે. એ પ્રમાણે તે કેટલા કાળ પર્યન્ત કહી શકાય છે? અર્થાત સૂમજીવની કાયસ્થિતિ કેટલી છે? या प्रश्न उत्तरमा प्रभु श्री ४ छ है-'गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव असंखेज्जा लोया' है गौतम! सूक्ष्म पनी आय સ્થિતિ જઘન્યથી એક અંતર્મુહુર્તની છે અને ઉત્કૃષ્ટથી અસંખ્યાત કાળ અને અસંખ્યાત લેક પ્રમાણ છે. આ અસંખ્યાતકાળમાં અસંખ્યાત ઉત્સપિ. શું અસંખ્યાત અવસરિણી આવી જાય છે. તથા અસંખ્યાત કાકાશ ના જેટલા પ્રદેશ છે. એટલા પ્રદેશમાંથી પ્રતિસમય એક એક પ્રદેશ ત્યાંથી બહાર કહાડવાથી જેટલા કાળમાં તે પ્રદેશ ત્યાંથી પૂરા નીકળી જાય છે, એટલા आणनी तेभनी आयस्थिति छ. मेनु नाम मसभ्यात छे. 'सव्वेसिं पुढविकालो जाव सुहम निओयस्स पुढविक्कालो' से प्रमाणे समस्त पृथ्वी जी० १५०
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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