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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.४ सू.१२६ पञ्चविधसंसारसमापन्नकजीवनि० १९४९ संख्येयानामेव मासानां प्राप्यमानत्वात् इति । 'एज्जत्त पंचिंदिए सागरोवम सयपुहुत्तं साइरेग' एप्तिकपञ्चन्द्रियाः खलु गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षण सातिरेकं सागरोपमशतपृथक्त्वम् द्विसागरोपमशतादारभ्य नवसागरोपमशतं यावत् शतपृथक्त्वमित्यर्थः । 'एगिदियस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा!, जहन्नेणं अंतोमुहुर्त-उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमब्भहियाई एकेन्द्रियस्य खलु भदन्त । कियत्कालमन्तरम्-एकेन्द्रियादुद्दृत्य पुनरेकेन्द्रियत्वोजीव की भवस्थिति उत्कृष्ट से छह मास प्रमाण की गई है अतः कतिपय निरन्तर पर्याप्त भवों की संकलना में वह संख्यात महीनों की लब्ध होती है 'पज्जत्तग पंचिंदिए सोगरोपम सयपुहुत्तं सातिरेग' पर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय जीव की कायस्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से कुछ अधिक सागरोपम शत पृथक्त्व की है अर्थात् द्वि सागरोपम शत से लेकर नव सागगेपम शत तक की है 'एगिदियस्स गं भंते ! केवतियं कालं अतरं होई' हे भदन्त ! एकेन्द्रिय पर्याय को छोडकर पुनः उसकी प्राप्ति में कितना अंतर होता है-विरह काल पडता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दो सागरोपमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाई' हे गौतम ! एकेन्द्रिय पर्याय को छोडकर पुनः एकेन्द्रिय पर्याय प्राप्त करने में अंतर जघन्य से तो एक अंतर्मुहूर्त का पडता है और उत्कृष्ट से संख्यातवर्ष अधिक २ हजार सागरोपम का पडता है क्योंकि उसकाय की कास्थिति का जितना काल है वही ઉત્કૃષ્ટથી છ માસ પ્રમાણુની કહેવામાં આવે છે. તેથી કેટલાક નિરન્તર પર્યાપ્ત सवानी सदाना गानाथी ते ज्यात महीनामानी तय छे. 'पज्जत्त पंचिदिए सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेग' पर्यास पयन्द्रिय पनी स्थिति જઘન્યથી એક અંતમુહૂર્તની છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી કંઈક વધારે સાગરેપમ શત પૃથકૃત્વની છે. અર્થાત્ દ્વિ સાગરોપમશતથી લઈને નવ સાગરોપમશત સુધીની छ. 'एगिदियरस णं भंते ! केवतियं कालं अंतर होई' भगवन् मे न्द्रिय પયોયને છોડીને ફરીથી તેની પ્રાપ્તિ થવામાં કેટલા કાળનું અંતર હોય છે? है। पि२६ थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४१ छ -'गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभहियाई ગૌતમ! એક ઈન્દ્રિયના પર્યાયને છોડીને ફરીથી એક ઇન્દ્રિય પર્યાયને પ્રાપ્ત કરવામાં જઘન્યથી એક અંતર્મહર્તિનું અંતર થાય છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી સંખ્યાત વર્ષ અધિક બે હજાર સાગરોપમાં થાય છે કેમકે–ત્રસકાયની કાયસ્થિતિને જેટલે
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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