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________________ १११८ जीवाभिगमसूत्र • अथ देवानां कामभोग प्रस्तौति- 'सोहम्मीसाणेसु देवा केरिसए कामभोगे पञ्चणुभक्माणा विहरंति' सौधर्मशाकल्पयोः खलु भदन्त ! देवाः कीदृशान् कामभोगान् शब्दादिविल्यान् प्रत्यनुमवन्तो विहरन्ति ? भगवानाह-'गोयमा ! इहा सदा इट्टा रूवा जाव फासा' इष्टान् शब्द-रूप-गन्ध-रस-स्पर्शान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति । 'पवं जाव गेवेज्जा' सोधर्मेशानवद् ग्रैवेयकान्ताः सनत्कुमारात् ज्ञेयाः । 'अणुत्तरोववाइयाणं अणुत्तरा सदा जाव अणुत्तरा फासा' अनुत्तरोपपातिकदेवानामनुत्तराः शब्दाः यावदनु तराः स्पर्शाः अनुत्तरान् सर्वतो विशिष्टान् शब्दादि विषयान् प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति वोध्यम् । शरीर की विभूषा अन्य आभरणादिकों द्वारा नहीं करते हैं किन्तु इनके शरीर की शोभा स्वाभाविक होती है। यहां पर भी देवियां नहीं हैं । 'सोहम्मीसाणेसु देवा रिसए कामभोगे पच्चणुम्भवमाणा वि हरंति' हे भदन्त ! सौधर्म और ईशान कल्प में देव कैसे कामभोगों का शब्दादि विषयों का अनुभव करते रहते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयना ! इट्टा सद्दा, इहा स्वा जाव फासा' हे गौतम ! सौधर्म और ईशान कल्प के देव इष्ट शब्द, इष्टरूप, इष्टगंध, इष्टरस और इष्ट स्पर्शो का अनुभव करते रहते हैं 'एवं जाव गेवेज्जा' ऐसा यह काम भोग सम्बन्धी कथन वेयकवासी देवों तक जानना चाहिये :अणुत्तरोववाझ्याणं अणुत्तरा सदा जाव अणुत्तरा फोसा०' अनुत्तरोपपातिक जो देव हैं वे अनुत्तर शब्दों का यावत् अनुत्तर स्पर्शो का-सर्वतो विशिष्ट शब्दादि विषयों का-अनु. भव करते रहते हैं । 'ठिई सव्वेसि भाणियव्वो' समस्त देवों की શરીરની શોભા આભૂષણ વિગેરે દ્વારા કરતા નથી. પરંતુ તેમને એ શરીરની शामा स्वालाविहाय छे. मी ५ हेविया डाती नथी. 'सोहम्मीसा णेसु देवा केरिसए कामभोगे पच्चणुभवमाणा वि०' ले भगवन् सीधम भने ઇશાન કપમાં કેવા પ્રકારના કામભેગેને અર્થાત્ શબ્દાદિ વિષને અનુભવ ४ छे. या प्रश्नातभा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा! इन्ठा, सदा इट्ठा रूवा जाव फासा' गौतम ! सौधर्म मने Uनयना ४ve , राष्ट ३५, ४८ गध, छट २स, मन छट २५ना मनुलव ४२di २९ छे. 'एवं जाव गेवेज्जा' ये शतनु मा आमा सधी ४थन अवय पासी हेवाना ४थन पर्यन्त समो . 'अणुत्तरोवयाइयाणं अणुत्तरा सदा जाव अणुत्तरा फासा० मनुत्तरापातिर हे छ तेस। मनुत्तर शहोने। यावत् मनुत्तरસ્પર્શેના–સર્વથી વિશેષ પ્રકારના શબ્દાદિ વિષયને અનુભવ કરતા રહે છે.
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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