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________________ प्रमेयधोतिका टीकाप्र.३ उ.३.१२१ देवविमानपृथिव्याः वाहल्यादिकम् १०८७ नेव छिरा न वि हारू-णेव संघयणमत्थि, जे पोग्गला इटा कता जाव ते तेसिं संघातत्ताए परिणमंति जाव अणुत्तरोववाइया' सौधर्मेशानकल्पयोः खलु भदन्त ! देवानां शरीराणि किं संहननानि किं संहननं येषां तानि तथा प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-गौतम ! पण्णां संहननानामन्यतमेनापि संहननेनाऽसंहननानि शरीराणि संहननस्याऽस्थिरचनात्मकतया प्रसिद्धिः एतेपान्तु अस्थ्यादीनामसंभवात् तथाचाह नैवास्ति-अस्थि, तेषां शरीरेषु नाऽपि शिरा-ग्रीवाश्मनिर्नापि स्नायू षिशेष शिराजालम् नैव संहननमस्ति (किन्तु) ये पुद्गला इष्टाः कान्ताः प्रियामनोज्ञा मनस आमतरास्ते तेषां शरीरसंघाततया परिणमन्ति ततः संहननाऽभावः, एवं तावद्वक्तव्यम् यावदनुत्तरोपपातिकानां देवानाम् इति । संहनन वाले होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! छण्हं संघयणाणं असंघयणी पण्णत्ता' हे गौतम ! संहनन छ प्रकार के होते हैं सो देवों के शरीर एक भी संहनन वाले नहीं होते हैं क्योंकि 'नेवहि, नेव छिरा न विहारू णेव संघयणपत्थि' इनके वैक्रिय शरीर होता है अतः उसमें न हड्डी होती है न शिरा ग्रीवा धमनि होती है न नसे होती है न स्नायुजाल होता है 'जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसिं संघातत्ताए परिणमंति' किन्तु जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मन आमतर होते हैं वे ही उसके संघातरूप से परिणाम जाते हैं। 'जाव अणुत्तरोववातिया' इसी तरह संहननाभावरूप यह कथन वानव्यन्तर से लेकर अनुत्तरोपपातिक देवों तक जानना चाहिये। _इस प्रकार से देवों में संहनन का अभाव प्रकट कर अब देवों का कोनसा संस्थान होता है यह प्रकट किया जाता है-इसमें गौतम ने प्रभु डोय छ ? २॥ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ -'गोयमा | छण्हं संघयणाणं असंघयणी पण्णत्ता' गौतम ! सनन छ २ना होय छे. हेवाना शरी। ते 4zी - ५४] सहनना होता नथी. भडे-'नेवट्ठी, नेव छिरा; नवि हारू णेव संघयणमत्थितन वैठिय शरीर डोय छे. तेथी तयामा ७४ा होता નથી. તેમજ શિરા ગ્રીવા ધમની હોતી નથી. તથા ન પણ હોતી નથી स्नायु होता नथी. 'जे पोग्गला इदा कता जाव तेसिं संघातत्ताए परिणमंति' પર તુ જે પુદ્ગલ ઈષ્ટ, કાંત, પ્રિય, મનેશ, અને મન આમતર, હોય તેના सघात पाथी परिणभी तय छे. 'जाव अणुत्तरोववातियो' मा प्रमाण સહનનના અભાવ રૂપ આ કથન વાનન્તર દેવોથી લઈને અનુત્તરપપાતિક દેવના કથન સુધી સમજી લેવું. આ પ્રમાણે દેવેમાં સંહનનને અભાવ બતાવીને હવે દેવોને કર્યું સંસ્થાન હોય છે, એ બતાવવામાં આવે છે. –આ સંબંધમાં ગૌતમ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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