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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.१२१ देवविमानपृथिव्याः बाहल्यादिकम् १०८५ उत्तरवेऽविए से जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइ भागे उक्कोसेणं जोयणसयसहस्स' एवं एक्केक्का ओसारेत्ताणं जाव अनुत्तराणं एक्का रयणी' तत्र यानि तानि उत्तरवैक्रियाणि तानि जघन्येन अंगुलस्य संख्येयं भागं यावत् (न तु-असंख्येयं तथाविधप्रयत्नाऽभावात् । उत्कर्षण योजनशतसहस्रम् लक्षकमित्यर्थः, एवमेकैकमपसार्य-यावदनुत्तराणाम् । नवरं-सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः उत्कर्षतो भवधारणीया षड्ररत्नयः, ब्रह्मलोकलान्तकयोः पञ्च, महाशुक्रसहस्रारयोश्चत्वारः, आनतादिषु वेउविए से जहण्णेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागो' उत्तरवैक्रियरूप शरीर की जो जघन्य अवगाहना है वह अंगुल के संख्यातवे भाग प्रमाण होती है. असंख्यातवें भाग प्रमाण नही होती है क्योंकि इस प्रकार के प्रयत्न का अभाव रहता है और 'उक्कोसेणं' उत्कृष्ट अवगाहना 'जोयणसयसहस्सं एक लाख योजन प्रमाण होती है 'एवं एक्केका ओसारेत्ताणं जाव अणुत्तराणं एका रयणी गेविज्जणुत्तराणं एगे भव: धारणिज्जे सरीरे उत्तरउचिया नत्थि' इस तरह आगे आये कल्पों में एक एक कम करते जाना चाहिये यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों की एक हाथ की अवगाहना रह जाती है तथा च सनत्कुमार माहेन्द्र कल्पों में उत्कृष्ट से भवधारणीय शरीर की अवगाहना छह रत्नि. प्रमाण है ब्रह्मलोक लान्तक कल्पों में भवधारणीय शरीर की अव: सराहना उत्कृष्ट से ५ रत्नि प्रमाण है महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में चार रत्नि प्रमाण उत्कृष्ट अवगाहना है और आनत प्राणत अच्युत इन कल्पों में उत्कृष्ट से भवधारणीय शरीर की अवगाहना जे से उत्तरवेउब्विए से जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागे' उत्तर वैठिय. રૂપ શરીરની જેમ જઘન્ય અવગાહના છે તે આંગળના સંખ્યામાં ભાગ પ્રમાણુની હોય છે. અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણવાળી હતી નથી. કેમકે એવા २ना प्रयत्ननममा २९ छे. भने 'उक्कोसेणं' कृष्ट अगाडना 'जोयण सयसहस्सं' मेला योनभानी डाय छे. एवं एक्केक्का ओसारेत्ताण जाव अणुत्तराणं एक्का रयणी गेविज्जणुत्तराणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे उत्तरवेउ, व्विया नत्थि' से शत भासण मागणना मर्थात् पछी पछीना ४८पामाथी मे એક ઓછા કરતા કરતા યાવત સનસ્કુમાર અને મહેન્દ્ર કલ્પમાં ઉત્કૃષ્ટથી ભવધારણીય શરીરની અવગાહના છ પત્નિ પ્રમાણની હોય છે. બ્રહ્મલેક અને લાન્તક કેમ્પમાં ઉત્કૃષ્ટથી ભવધારણીય શરીરની અવગાહના ૫ પાંચ પત્નિ પ્રમાણની થાય છે. મહાશુક અને સહસાર નામના કલ્પિમાં ચાર પત્નિપ્રમાણ કષ્ટ અવગાહના છે. તથા આનત પ્રાણત, આરણ અને અય્યત આ કમાં -/
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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