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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.१२१ देवविमानपृथिव्याः वाहल्यादिकम् १०७५ विमानगन्धवर्णनम्-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केरिसया गंधेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! से जहा णामए कोहपुडाण वा जाव गंधेणं पन्नत्ता, एवं जाव एत्तो इतरगा चेव जाव अणुत्तरविमाणा' सौधर्मशानकल्पयोः खलु भदन्त ! विमानानि गन्धेन कीदृशानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! स यथा नामकः कोष्ठपुटानामिति वा चम्पकपुटानामिति वा भाण्डाद्भाण्डान्तरं हियमाणानां वा मनोहरमनोजघ्राणेन्द्रियनिवृत्तिकराः सर्वतः समन्ताद्गन्धा अभिनिःसरन्ति बदत्येवं भगवति सहर्पगद्दं प्राह-गौतमः-एतादृशो विमानानां गन्धः प्रसरे भवेत् । भगवानाह-नायमर्थः समर्थः ते गन्धा इतोऽपि इष्टतराः कान्ता मनो विमान गन्ध कथन-'सोहम्मीसाणेलु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा केरिसया गंधेणं पण्णत्ता' हे भदन्त ! सौधर्म और ईशान में जो विमान हैं उनकी गन्ध कैसी है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! से जहा नामए कोहपुटाण वा जाव गंधेणं पण्णत्ता' हे गौतम ! जैसी गन्ध कोष्ट पुट-गन्ध द्रव्य विशेष आदि पदार्थ की होती है इस गन्ध से भी अधिक विशिष्ट गन्ध यहां के विमानों की हैं ‘एवं जाव एत्तो इट्टयरगा चेव जाव अणुन्तर विमाणा' यही बात इस सूत्र पाठ द्वारा प्रदर्शित की गई है कि हे गौतम ! यहां के विमानों की गंध की प्रशंसा की जावे-दुनियां में जितने ऊंचे ऊंचे गन्ध द्रव्य हैं-उनसे भी अधिक ऊंची गन्ध इन विमानों की है इनकी गन्ध से अधिक और कोई गन्ध पदार्थो की गन्ध नहीं है यही वात 'कोहपुडाण वा दमणगपुडाण वा कुंकुमपुडाण या' आदि पदों द्वारा प्रकट की गई विमानाना धनु ४थन'सोहरमीसाणेसु णं भते ! कप्पेसु विमाणा केरिसया गंधेणं पण्णत्ता' ભગવદ્ ! સૌધર્મ અને ઈશાન કલ્પમાં જે વિમાને છે, તેને ગંધ કે છે? या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४१ छ -'गोयमा! से जहा . नामए कोट्ट पुडोणवा जाव गंधेणं पण्णत्ता' हे गौतम ! धष्टपुट ધદ્રવ્ય વિશેષ વિગેરે પદાર્થને હોય છે, તે ગંધથી પણ વધારે વિશેષ ગંધ माना विमानाना छ. 'एवं जाव एतो इयरगा चेव जाव अणुत्तरविमाणा' એજ વાત આ સૂત્ર પાઠ દ્વારા બતાવવામાં આવેલ છે. કે હે ગૌતમ ! અહીંના વિમાનના બંધની પ્રશંસા કરવામાં આવે તો દુનિયામાં જેટલા ઉંચામાં ઉચા ગન્ધ દ્રવ્ય છે તેનાથી પણ વધારે ઉંચા પ્રકારને ગંધ આ વિમાનેને છે. આના ગંધથી વધારે બીજા કેઈ પણ ગંધ પદાર્થોની ગંધ નથી. એજ पात- कोटपुडाण वा चंपकपुडाण वा दमणगपुडाण वा, कुकुमपुडाण वा' विगेरे
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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