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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू. ११९ शक्रादिदेवानां परिषदादिनि० १०३७ भाणियव्या' स्थिति भणितव्या तथाहि-लान्तके-'अभितरियाए परिसाए वारससागरोवमाई सत्त पलिओवमाईठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए बारस सागरोवमाई छच्च पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता बाहिरियाए परिसाए वारस सागरोक्माइं पंच पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता' आभ्यन्तरिकपर्षदि द्वादश सागरोपम सप्तपल्योपमानि माध्यमिक पर्षदि द्वादश सागरोपम षट् पल्योपमानि बाह्यायान्तु-द्वादशसागरोपमपश्चपल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता इति । 'महामुक्कस्स वि जाव तो परिसायो जाव' महाशुक्रस्याऽपि यावत्तिस्रः पर्पदः कुत्र खलु ते -क्व च तेषां विमानानि परिवसन्ति ? भगवानाह-गौतम ! लान्तकोपरि सपक्षप्रतिदिशि वहूर्व महाशुक्रनामा कल्पः सर्वतो विस्तीर्णश्चन्द्रसंस्थानवान् इत्यादि रजतावतंसक और जातरूपावतंसक ये चार अवतंसक विमान है और बीच में लान्तकावतंसक विमान है आभ्यन्तर परिषदा के देवों की स्थिति १२ सागरोपम की और ७ पल्योपम की है मध्यपरिषदा के देवों की स्थिति १२ सागरोपम की और ६ पल्योपम की है और बाह्यपरिषदा के देवों की स्थिति १२ सागरोपम और ५ पल्योपम की है 'कहि णं भंते ! महासुकगदेवाणं विमाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! महासुक्क देवा परिक्संति ?' हे भदन्त ! महाशुक्र नामके देवों के विमान कहां पर हैं और महाशुक्रक नामके देव कहां पर रहते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! 'लंतगकप्पस्स उवरि०' हे गौतम ! लान्तक कल्प ते ऊपर पूर्वादि चार दिशाओं में बहुत योजनों तक यावत् दूर जाने पर आगत स्थान में महाशुक्र नामका कल्प है यह कल्प पूर्व से पश्चिम तक लम्बा और उत्तर से दक्षिण तक चौडा है પ્રમાણે આ કલ્પમાં અંકાવાંસક, સ્ફટિકાવાંસક, રજતાવવંસક, અને જાત રૂપવતંસક આ ચાર અવતંસક વિમાને છે. અને તેની વચમાં લાન્તકાવતંસક વિમાન છે. આભ્યન્તર પરિષદાના દેવેની સ્થિતિ ૧૨ સાગરેપમ અને ૭ ૫૫મની છે. મધ્યમ પરિષદાના દેવાની સ્થિતિ ૧૨ બાર સાગરેપમ અને ૬ છ પપમની છે. અને બાહ્ય પરિષદાના દેવની સ્થિતિ ૧૨ બાર સાગરે. ५भ मने पाय पक्ष्योपभनी छ. 'कहिणं भंते ! महासुक्का देवाणं विमाणा पण्णत्ता ? कहिणं भते । महासुक्का देना परिवसंति' गवन् माशु नामाना हेवाना विभाना ४यां मावेसा छ ? मन भडायना हेवे। ४यां निवास ४२ छ ? 'गोयमा ! लंतगकापरस उवरि गौतम ! alrds ४६५नी ५२ पूर्व वियेरे यार दिशामामा ઘણા લેજને સુધી યાવત દૂર જવાથી આવેલા સ્થાનમાં મહાશુક નામને કલ્પ છે. આ કલ્પ પૂર્વથી પશ્ચિમ લાંબુ અને ઉત્તરથી દક્ષિણ સુધીનું પહેલું છે.
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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