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________________ प्रमौतिका ठीका प्र. ३ उ. ३.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् ८७३ पेहुणं मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्त्तिनीमिया पेडुणमिखा सा चातीव शुक्ला भवतीति । 'विसेति वा' दिसमिति वा विमं पडिली कन्दः । 'मिणालिएति वा' मृणालिकेति वा, मृणालं पद्मतन्तुः । ' गयदंतेति वा' गजदन्त इति वा, गजो हस्ती तस्य दन्तोगजदन्तः स चाखीव शुक्लस्ततस्तदुपादानम् । 'लवादलेति वा' लवङ्गदलमिति वा, लवङ्गपत्रमतीव शुक्लं भवति तदुपादानम्, 'पौडरीयदलेति वा' पौण्डरीक दलमिति चा, पौण्डरीकं श्वेतदलम् 'सिंदुवारमल्लदा मेदिवा' सिन्दुवारमाल्यदाम इति वा, सिन्दुवारः श्वेतपुष्प वृक्षविशेषः 'सेवासोति वा वहाशोक इवि वा, 'सेयकणवीरेह चा' श्वेत मदर इति वा 'सेबंधुजीव वा' श्वेत बन्धु जीवक इति वा, गौखयः प्राह - 'सवेपयारूवे सिया' सवेद किं श्वेतानां तृणानां मणीनां चैतान्द्रपः - अनन्तरोदीरितस्त्ररूपो वर्गावास इति भगरान् प्राह- हे गौतम ! 'णो इण सट्टे' नायमर्थः समर्थः किन्तु 'तेसि णं सुक्किल्लाणं दणाणं शुक्ल होता है 'मिणालिरति या' प्रिणालिका - बिसतन्तु जैसी शुक्ल होती है 'गयतेति बा' गजदन्स जैसा घथल होता है | 'लवंगदलेति वा ' लौंग के वृक्ष का पता जैला धवल होता है 'पोडरीयदलेति वा' पुण्डरीक मलकी पांखडी जैसी सफेद होती है 'सिंदुवार मल्लदामेति वा' सिन्दुवार पुष्पों की माला जैसी सफेद होती है 'सेता सोएति वा' श्वेत अशोक जैला शुभ्र होता है 'सेचफणवीरेह वा' क्षेत्र कनेर जैसी सफेद होती है 'सेय बंधुजीवेह या' श्वेत बन्धुजीव-पकुलजैसा सफेद होता है 'भवेएयासवे सिया' तो क्या ! हे भदल ! ऐसा शुक्ल रूप उन तृणों का और मणियों का होता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयला ! जो हणट्टे सबड़े' हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'तेलिणं सुविकल्लाणं तणाणं मणीण य' उन मिसतन्तु नेवा सह होय छे, 'गयद'ते इवा' हाथी हांत लेवे। सदेह डाय यान नेवा सह डाय छे, 'पोंडरीय छे. 'लव' गदलेइवा' सविंगना वृक्षना दलेत्तिवा' युउरी घोणा भजनी पांगडी देवी सह होय छे, 'सिंदुवार मल्लदामेतिवा' सिहुवार पुष्पानी भाषा देवी सह हाय हे 'सेतासोर तिवा' श्वेत अशी पुष्प भेषु सरे हाय छे, 'सेय कणदीरेइव।' घे'णी रेष्टनु पुण्य नेवु सह होय छे, 'सेय बंधुजीवेइवा' श्वेत बंधुलव- युष्य सहाय छे. 'भवेएयारूवे सिया' हे भगवन् तो शुद्ध से तो अने મણિયાની શ્વેતતા એવા પ્રકારની હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीने हे छे 'गोयमा ! णा इणट्टे समट्टे' हे गौतम! आ अधु समर्थ नथी. भट्ठे 'वेसि णं सुकिल्लाणं तणाणं मणीणय' थे तथेो भ्यने नी० : ११०
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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