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________________ प्रमैयद्योतिका टीका न.३ ३.३ सू.५२ जगत्या पद्मवरवैदिकायाश्चवर्णनम् ८२७ नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय सम्प्रति-विधिमुखेनास्तित्वं प्रतिपादयति-'भुवि च' इत्यादि, 'भुपिं च भवइ य भविस्तइ य' अयूच्च भवति च भविष्यति च, त्रिका. लावस्थायित्वात् 'धुवा' ध्रुवा-मे दिवत् सदा स्थायित्वाद ध्रुवत्वादेव 'णियया' नियता सर्वदेव स्वस्वरूपेऽस्थितत्वात, नियतत्वादेव च 'सासया' शाश्वतीशश्वद्भवन स्वभावत्वात, शाश्वतत्वादेव च 'जक्खया' न विद्यते क्षयो यथोक्त स्वरूपाकारपरिभ्रं शो यस्याः साऽक्षया, सस्त गङ्गासिन्धु प्रवाह प्रवृत्तावपि पौण्डरीकदाचानेजपुद्गलविचटनेऽपि तावत्ममाणकान्यपुद्गलोच्चटनसंभवाद, अक्षयत्वादेव 'अव्वया' अव्यया अव्ययशव्दवाच्या, ईपदपि स्वरूप चलनस्य कदाचिदपि असंभवात्, अव्ययत्वादेव 'अवष्टिया' अवस्थिता मानुपोत्तरऐसा नहीं है वर्तमान में यह नहीं है ऐला भी नहीं है और भविष्य काल में यह नहीं रहेगी ऐसा भी नहीं है। शिन्तु 'भुवि च भवइ य भविस्सइ य' पहिले भी यह पद्मवश्वेदिकाथी, अब भी है और आगे भी यह सदा रहेगी। इस प्रकार से इलका त्रिकालची अस्तित्था है अतः यह 'धुवा' मेरु आदि की तरह ध्रुव है और ध्रुप होने से ही यह 'णियया' अपने स्वरूप में नियत है । नियत होने से ही यह 'सासया' शाश्वन है शाश्वत होने से ही यह 'अक्खया' गंगासिन्धु के प्रवाह में प्रवृत्त पौण्डरीक हहकी तरह अनेक पुमलों का विघटन होने पर भी उतने प्रमाण के अन्ध पुशलों के मिल जाने से अक्षर है इसके स्वरूप का कभी विनाश नहीं होता है अक्षय होने से ही यह 'अव्वधा' अध्यय है-अव्यय शब्द वाच्य है क्योंकि थोडे से भी रूप में यह अपने स्वरूप से कभी भी चलिन नही होनी है अव्यय होने से ही એ વર્તમાનમાં નથી એમ પણ નથી અને ભવિષ્યમાં એ નહીં હોય એમ ५ नथी. परंतु 'भुविच भवइ य भविस्सइय' ॥ ५६१२ ३ पडला પણ હતી વર્તમાનમાં પણ છે, અને ભવિષ્યમાં પણ એ સદા રહેશે. આ રીતે તેનું અસ્તિત્વ ત્રણે કાળમાં છે. તેથી “gવા મેરૂ વિગેરેની જેમ ધ્રુવ છે. અને ध्रुव वाथी को 'णियया' पाताना स्व३२ नियत छे. नियत जापाथी मे 'अक्खया' 111 सिधुना प्रवाहमा प्रवृत्त यी ४२४ नी म मन पुगલોનું વિઘટન થવા છતાં, પણ એટલા પ્રમાણના બીજા પુદ્ગલે મળી જવાથી અક્ષય છે. તેના સ્વરૂપનો વિનાશ કયારેય પણ થ નથી. અક્ષય હોવાથી ते 'अव्वया' भव्यय छे. अव्यय श४ पाय छ, भ 21 मेवा २१३५मा પણ તે પિતાના સ્વરૂપથી કયારેય પણ ચલિત થતી નથી. અવ્યય હોવાથીજ मे पाताना प्रभामा 'अवद्विया' मानुषत्तर पतिथी मार २२८ समुद्र
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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