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________________ जीवाभिगमन ७१२ लष्टाघृष्टामृष्टानीरजानिर्मला निष्पङ्का निष्पवटच्छाया सप्रमा सश्रीका समरीचा सोद्योता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा । सा खलु जगती एकेन जालकटकेन सर्वतः समंतात संपरिक्षिप्ता ॥ स खल्ल जालकटकः खलु अर्द्धयोजन घुर्वमुच्चत्वेन, पञ्चधनुः शतानि विष्कम्भेण, सर्वरत्नमयोऽन्छः श्लक्षणः लटो. घृष्ठोमष्टो नीरजाः निर्मलो निकटच्छायः सप्रमः सश्रीकः समरीच: सोधोतः मासादीयो दर्शनीयोऽभिरूपः पतिरूपः ॥मु० ५१॥ टीका-'कहिणं भवे ! दीरसमुदा' कुत्र- कस्मिन् स्थाने खल भदन्त ! द्वीपसमुद्राः, द्वीपाः समुद्राश्च सन्तीति द्वीपसमुद्राणामवस्थानविषयकः प्रथमः पश्नः, 'केवइयाणं भंते । दीवसमुद्दा' कियन्तः कियसंग्यकाः खल मदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता इति द्वीपसमुद्राणां संख्याविषयको द्वितीयः प्रश्नः, के 'महालयाणं भंते ! दीवसमुदा' कियन्महालया द्वीपसमुद्राः कियान् महानालयं आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो येषां ते कियन्महाळयाः किं प्रमाणमहालयाः द्वीपसमुद्रा इति ज्योतिषकदेव तिर्यग्लोक में है अतः तिर्यग्लोक के प्रस्ताव से अथ सूत्रकार द्वीप एवं समुद्र के सम्बन्ध में वक्तव्यता का कथन करते है। 'कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा पन्नत्ता' इत्यादि । टीकार्थ-गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'कहिणं भंते दीवसमुद्दा पण्णत्ता' हे भदन्त ! द्वीप और समुद्र किस स्थान पर कहे गये है ? अर्थात् द्वीप समुद्रों का अवस्थान कहाँ पर है । इस प्रकार से यह प्रश्न गौतमका द्वीप और समुद्रों के अस्थान के विषय में है। 'केवड्या णं भंते ! दीवलमुद्द। वे द्वीप समुद्र हे भदन्त ! कितने है ? यह प्रश्न उनकी संख्या के विषय में है। 'के महालया ण भंते ! दीव समुदाहे भदन्त ? वे द्वीपसमुद्र कितने-घडे-विशाल है ऐसा यह प्रश्न उनकी आयामादि તિષ્કદેવ તિર્યકમાં છે, તેથી તિર્યશ્લેકના પ્રસ્તાવથી હવે સૂત્રક ૨ द्वीप भने समुद्रना सम्पन्धमा ४थन ४२ता छ 'कहि ण' भ ते! त्यादि 'कहि णं भंते ! दीवेसमुद्दा पण्णचा' त्याह दार्थ-श्रीगीतमस्वामी प्रभुश्री२ मे ५ यु छ है 'कहिणं भंते ! दीवसमुदा पण्णत्ता' सावन्द्वी५ भने समुद्री या स्थान ५२ ।।१ अर्थात દ્વીપસમુદ્રોની સ્થિતિ કયાં આવેલ છે? આ રીતને આ પ્રશ્ન શ્રીગૌતમસ્વામીએ द्वा५ भने समुद्रीन। भवस्थान संभ मां पूछे छे. 'केवइया णं भते। दीव समुद्दा' हे सगवन से द्वीप समुद्री हेटसा छ ? या प्रश्न द्वीप समुद्रानी सध्यान समयमा हेर छे. 'के महालया णं मंते ! दीवसमुदा' हे भगवन् તે દીપ સમુદ્રી કેટલા મેટા વિશાળ પ્રમાણુના છે ? એ પ્રમાણેને આ પ્રશ્ન તેના
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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