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________________ जीवामिगम विरागसमये नवनिधिपतेर्दीपिका चक्रवालवृन्दम्, तत्र संध्यारूपो विद स्तिमिररूपत्वात् रागः संध्याविरागस्तत्समये तवसरे नवनिधिपतेय. वर्तिन इव दीपिका चक्रबालवृन्दं तत्र हवा दीपा दीपिकाः तासां दीपिकानां चक्रयालं-चक्रसमूहः सर्वतः परिमण्डलरूपं वृन्दम् तत् कीटक वाह'पभूयवहिपलित्तणेहे' प्रभृतवर्तिपर्याप्तस्नेहम् तत्र प्रभूताः-भूयस्यः स्थूगः वर्तयः दशा यस्य तरथा एवं पर्यायः-परिपूर्णः स्नेहस्तेलादिरूपो यस्य सद पर्याप्तस्नेहम् 'घणि उज्जालियतिमिरमहए' घणयोज्वालिनु तिमिरमर्दकम् तत्र घणिय देशी शब्दोऽतिशयार्थः, तेन अतिशयोज्यालितम् अतएव तिमिरमर्दकम् अन्धकार विनाशकं तवृन्दम्, पुनः किं विशिष्टं दीपिका चक्रवाधवृन्दम् ? तबाह'कणग' इत्यादि । 'कणगणिगा कुसुमित पालियातय वणप्पगासे' कनकनिकर-कुसुमित पारिजातकवनप्रकाशम्, तत्र कनकनिकर:- सुवर्णराशिः कुमुमितं च तत् पारिजातकवनं चेति कुसुमित पारिजातकवनम् अनयोः प्रकाशेन तुल्या प्रकाशो विद्यते यस्य तत् कनकनिकर कुसममित पारिजातकवनप्रकाशम् एतत्तेपां तेजो. वर्णनं कृतम् । अथ दीपशिखा द्रुमगणवर्णनं क्रियते 'कंचणमणि रयण विमल यह इन्हीं कल्पवृक्षों से होता है जहा से संघाविरागसमए नवनिहि पइणो दीविया चकवालविंदे पभूयवस्पिलित्तणेहिं घणिउज्जालिय तिमिरमदए' अतः जिस प्रकार संध्या के समय में नव निधिपति अर्थात् चक्रवर्ती के यहां का दीपिका घृन्द कि जिस में अच्छी तरह से वत्तियां जल रही हों और जो तैल से भरपूर हो प्रज्वलित होता हुआ शीघ्रता के साथ तिमिर का विध्वंसक होता है और जिसका प्रकाश 'कणगनिगरकुसुमितपालि यातयणप्यगासे' कनक निकर के जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजातक (देव वृक्ष विशेष) के वन के प्रकाश जैसा-प्रकाश होता है तथा-'कंचण मणिरयणविमल महरिय तवणिज्जुजल विचित्तदंडाहिं दीवियाहिं' जिन दीपिकाओं संज्झा विरागसमए नवविहि पदपणे दीविया चकवालविंदे पभूयवत्तिपलित्तणेहि घणिज्जालियतिमिरमदए' तथा रेभ सध्या समये नविपति मर्थात् ચક્રવતિને ત્યાંને દીપિકાવૃંદ દિવાનો સમૂહ કે જેમાં સારી રીતે બત્તી બળતી હોય અને જે તેલથી ભરપૂર હોય, પ્રજજવલિત થઇને એક દમ २२ नाश श छे. मने रेनो श 'कणगनिगर कुसुमितपालिया तयवणप्पगासो' 31 नि४२॥ २॥ शवामा सुमोथा युत सेवा पार Pandsना पनना ४/A वारेन डाय छे. तथा 'कंचणमणिरराण विमा
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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