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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५५५ पगारा' बहुप्रकाराः एकै कस्मिन् विधौ अवान्तरानेकभेदसद्भावादिनि । 'ह हेव ते मिर्गगया वि दुमगणा' तथैव ते भृताङ्गा अपि द्रुमगणाः 'अणेग बहुविविहीससा परिणयाए' अनेक बहुविविधमकारेण विसापरिणतेन-स्वभानत एव परिणतेन विस्रसापरिणामेनानेकपकारतया परिणतेन न तु केनचित्तथा संपादिता इति । 'भायणविधीए उववेया' भाजनविधिनोपपेता:-युक्ताः, 'फलेहि पुण्णा विसद्वृति' फलैः पूर्णा दलन्ति-विकसन्ति 'कुसविकुस जाब चिट्ठति' कुविकुश विशुद्ध क्षमूला: मूलकन्दादि मन्तो यावत् प्रासादनीया अभिरूपाः प्रतिरूपास्ति'ठन्तीति । के चित्रों की रचना की गई होती है भाजन विधि अनेक प्रकार की होती है-अर्थात् भाजन अनेक प्रकार के होते हैं क्योंकि इनके अवान्तर भेदों की गिनती नही है-इसलिये 'मिगंगया वि दुभगया तहेव' ये जो भृताङ्ग जाति के कल्पवृक्ष ईवे भी एक प्रकार के न हो कर अनेक प्रकार के ही होते है। तभी तो ये भिन्न २, जाति के रूप में परिणत होते रहते हैं । 'अणेग बहु विविस्वीसला परिणयाए' इनका जो इस प्रकार से विविध पात्रों के देने रूप परिणाम है रक्षा भाविक है किसी के द्वारा किया गया नहीं छोमा 'मायणविहीए उश्वेया' इस तरह भाजन प्रदान करने की विधि से युक्त हुए ये भृत्ताङ्ग जाति के कल्पवृक्ष 'फलेहिं पुण्णा विरुष्टुति' फलों से भरे हुए विकसित होते रहते हैं और भिन्न २, प्रकार के पात्रों को प्रदान करते रहते हैं। 'कुस विकुस जाब चिट्टति' इनकी भी नीचे की जमीन पर बुश आदि नही होते है ये प्रशस्त मूल आदि विशेषणों वाले होते हैं ॥२॥ હોય છે. ભાજન વિધિ અનેક પ્રકારની હોય છે. અર્થાત અનેક પ્રકારના ભાજન વાંસ હોય છે. કેમકે તેના અવાન્તર ભેદની ગણત્રી થઈ શકે તેમ નથી તેથી 'भिंगंगया वि दुमगया तहेव' २ मा मृतin नतीना ४८५ वृक्ष छे, ते ५५ એક પ્રકારના ન હોઈ અનેક પ્રકારના જ હોય છે. ત્યારેજ તેઓ જૂદી જૂદી तना पात्राना ३५मा परियत थता पर छे. 'अणेगबहु विविहवीससा परिणयाए, २मा प्रमाणे विविध पात्राने मायका ३५ भानु २ परिणाम छ, त स्वाभावि छ. धिना द्रा२। २वामां माता नथी. 'भायणविहींए उबवेगा' આ રીતે ભજન પ્રદાન કરવાની વિધિથી યુક્ત એવા આ ભૂતાંગ જાતિના ४८५ वृक्ष! 'फलेहिं पुण्णा विसति' णाथी मरे ७२ विसित थता रहे छे. सन पू ५४२ना पात्र माया ४२ छ. 'कुमविकुस जाव चिदंति' તેની નીચેની જમીન પર પણ કુશ વિગેરે હોતા નથી. અને તે બધા પ્રશસ્ત મૂળ વિગેરે વિશેષાવાળા હોય છે, જે ૨ |
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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