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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उं.२ .३१ अविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० ४३७ 'अविसुद्धलेरसं देवं देवि अणगारं' अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाण पासइ' जानाति-ज्ञानविषयीकरोति, पश्यलि- दर्शनविषयी करोति, इति प्रश्ना, भगवा . नाह -'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इण्टे समढे' नायमर्थ अविशुद्धलेश्यावयेन यथावस्थित पदार्थप रिच्छे स्मशक्यत्शदिति ३। 'अविसद्धले से अणगारे' अविशुद्धलेश्यः-कृष्णादिछेश्यासहितोऽनगारः 'सम हए णं अपाणेणं' समाह सेन-वेदनादि समुद्घातगतनात्मना 'विसुद्ध छेस्सं देवं देवि अण गारं' विशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पासइ' जानाति सामान्यतः, पश्यति विशेषरूपेणेति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः अविशुदलेश्यतया यधावस्थित वस्तुपरिच्छेदासंभवादिति ४ । 'अविमुद्धलेस्से णं भंते । अगगारे' अविश लेश्यः खल्ल भदन्त ! अनगार:-साधुः 'समोहया समोहएगं अपाणेणं समवष्ठता समवहतेनाऽऽत्मना तो क्या वह स्वयं के द्वारा 'अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगार' आंधशुद्ध टेश्या वाले देव को या देवी को या अनगार को क्या जानता है और देखता है ? इसके उत्सर में प्रभुश्री कहते हैं-'जो इणढे समटे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है इसका कारण लेश्या की अविशुद्धता में यथावस्थित वस्तु परिच्छेदक ज्ञान नहीं होता है अविसुद्धलेरसे अण गारे समोहएणं अप्पाणे विसु द्रलेसन देवं देवि अणगारं जाण पाRE हे भदन्त ! जो अनगाा अविशुद्ध लेश्या वाला है और वेदनादि समुद घात गत रहा हवा है तो क्या वह स्वयं के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या अनगार को क्या जानता देखता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री करते हैं-हे गौतन! 'लोषण सम' यह अर्थ समर्थित नहीं तो शुत २५य यातनाथी 'अबिसुद्धलेस्व देव देवि अणगार' जाणइ पासइ' અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા અણગારને શું જાણે છે? भने हेमे छ मा प्रक्षना उत्तम प्रभुश्री गौतम भान छ है जो इणट्रे समटे हे गौतम ! भा मथ म३।१२ नथी. तनु .२५ देश्यानी विशुद्धिमा यथावस्थित परतु परि ज्ञान हा ते हातु नथी. 'अविसुद्धले से अणगारे समोहएण अप्पाण्णं विसुद्धलेस्स देव' अणगार जाणइ पासइ मापन જે અણુગાર અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળો હોય અને વેદના વિગેરે સમુદઘત યુકત હોય તે શું તે સ્વયં તેિજ વિશુદ્ધ લેશ્ય વાળા દેવને અથવા દેવીને કે અણગારને જાણે છે? કે દેખે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! 'नो इण? समटे' मा म र नथी, तेनु र ६५२ वाम मावी
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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