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________________ ४७ जीवामिगमस्ये जयपदा दुत्कृष्टपदिनो जीवा असंख्ये पगुणा अधिका भवन्ति, उत्सपिण्यवसर्पिणीनां जघन्योत्कृष्टपदोक्ता संख्येयत्वमध्ये जघन्यपदोक्ता संख्येवत्वापेक्षया उत्कृष्टपदोक्ता संख्येवस्य असंख्येयगुणाधिकत्वादिति भावः । 'एवं जाव पडप्पन्न बाउकाइया' एवं पृथिवी कायिकवदेव यावद् वायुकायिका जीवा। अघ. न्यो कृष्ट देऽख्येयामि रुत्सपिण्यवसर्पिणीमि निलेपा भवन्तीति यावत्पदेना. प्तेजः कायिकानां ग्रहणं भवतीति तथा च पृथिवीकायिकादारभ्य वायुकायिक जीपाः जघन्योत्कृष्टाभ्यामसंख्याताभि रुत्सर्पिण्यासपिणीमि निलेपा भवन्तीति जाती हैं इसी प्रकार उत्कृष्ट से अर्थात् एक ही काल में जय वे अधिक से अधिक उत्पन्न होते हैं बस अपेक्षा से भी यदि उनमें से भी एक २ समय में एक-एक जीन अपहृत किया जावे तो भी उनके भी पूरे अप. हरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात अव सपिणियां समाप्त हो जावें तब ये पूरे अपहृत हो सकते हैं-'जहण्णपदाओ उक्कोरूपए असंखेज्जगुणा' जाधय पद वाले उत्पद्यमान अभिनव पृथिवी कायिक जीवों की अपेक्षा जो उत्कृष्ट पदवी अभिनव पृथिवी कायिक जीव उत्पन्न होते हैं वे असंख्यात गुणे अधिक होते हैं। क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट पदों में दोनों जगह असंख्घात पद होते हुए भी जयन्यपदोक्त असंख्याल च की अपेक्षा उत्कृष्ट पदोक्त असंख्यातत्व असंरुपातगुणा अधिक होता है। ‘एवं जाच पड्डप्पन्न वाउमाइया इसी तरह से एक फाल में यावत् अभिनव अकायिक तैनस्कायिक और वायुकायिक जीव पम ले कम और अधिक से अधिक इतने उत्पन्न होते हैं कि उनमें से एक एक समय में एक जीव का अपहरण किया जावे तो पृथिवीकायिक समास थ नय छे त्यारे ते पूरे ५२॥ ५७२ ४६11 शय छ 'जहण्ण पदामो उक्कोसपए अस खेज्जणा' धन्य ५४ाणपन्न थना। नवा नवा પૃથવીકાયિક જીની અપેક્ષાથી જે ઉત્કૃષ્ટ પદ વતી નવા નવા પૃથ્વીકાયિક જી ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ અસંખ્યાત ગણું વધારે હોય છે. કેમકે જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં બન્ને સ્થળે અસંખ્યાત પદ હોવા છતાં પણ જઘન્ય પદમાં કહેલ અસંખ્યાત ચ ની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ પદમાં કહેલ અસંખ્યાતવ मसभ्याता पधारे हाय छे. 'एजाव पडुप्पन्न वाउक्काइया' मे प्रभा એક કાળમાં યાવત્ નવા નવા અપકાયિક, તેજસ કાયિક અને વાયુકાયિક જીવ ઓછામાં ઓછા એક એક સમયમાં એક એક જીવનું અપહરણ કરવામાં આવે અર્થાત્ બહાર કહખવામાં આવે તે પૃથવીકાયિક જીવોની જેમજ
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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