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________________ રૂપ! प्रमेययोति का टीका प्र.३ उ. २ . २२ नारकस्थितिनिरूपणम् घृणा' इत्यादि, 'उणा भाणियव्त्रा जहा चक्कंती तहा इह वि जात्र अहे सत्तमाए' एवमुद्वर्तना, नारकजीवानां नरकादुदुवृत्तानां सणितव्या । यथा व्युक्रान्तिपदे तथेहापि याचदधः सप्तम्याम् प्रज्ञापनाया व्युत्क्रान्तिपदे येन प्रकारेणोद्वर्तना कथिता तथैवात्रापि ज्ञातव्या, भज्ञापनाया द्वितीय व्युत्क्रान्ति पदमति विस्तृतं विद्यते अतः पाठकैः स्वयमेव तत्मकरणं द्रष्टव्यम् संक्षेपतस्तु इत्थम् - रत्नप्रभात आरभ्य यावत् समयमा पृथिवी नैरयिकाः आपः पृथिवीभ्य उद्धृत्य नैरयिक देवैकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय संसूच्छिम पञ्चेन्द्रियासंख्येय वर्षायुष्कवर्जेषु शेषेषु उत्पद्यन्ते, तमस्तमा पृथिवीनारकास्तु अनन्तरमुत्ताः सन्तो गर्भजतिर्यक् पञ्चेन्द्रियेष्वेव उत्पद्यन्तेन शेर्पातिर्यक्षु न वा देवेषु न वा मनुष्येषु इति ॥० २२ ॥ देश द्वारा इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं 'एवं उववट्टणाभाणियव्था जहा यक्कतीए तह इह यि जाव अहे सत्तमाए' हे गौतम ! जैसा नारकों की उहर्त्तन के सम्बन्ध में प्रज्ञापना के छठे व्युत्क्रान्ति पद में कथन किया गया है वैसा ही कथन यहां पर भी कर लेना चाहिये प्रज्ञापना का वह व्युत्क्रान्ति नाम का छठा पद बहुत विस्तृत है अतः जिज्ञासुओं को यह प्रज्ञापना में देखना चाहिये संक्षेपतः उसका कथन इस प्रकार से है - रत्नप्रभा से लेकर तमः प्रभा तक से निकला हुआ नैरथिक देव एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रि, संमूच्छिम पञ्चेन्द्रिय, और असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। बाकी के तिर्यङ्ग मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तथा अधःतमी पृथिवी से निकला हुआ नैरविक जीव सीधा गर्भज तिर्यक् पञ्चेन्द्रियों में ही उत्पन्न होता है शेष तिर्यश्वों में, देवों में और मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होता है | सूत्र ॥ २२ ॥ तमाए' हे गौतम! नारोनी उद्वर्तनाना संधसां असा प्रज्ञायना સૂત્રના છઠ્ઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં જે પ્રમાણે કથન કરવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેનુ કથન અહિયાં પણ કહેશું જોઇએ. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રનું તે વ્યુત્ક્રાન્તિ નામનુ છઠ્ઠું પદ્મ ઘણું મેટુ' છે. તેથી જીજ્ઞાસુઓએ તે પ્રજ્ઞાપુના સૂત્રમાં જોઇ લેવું. સક્ષેપથી તેનુ કથન આ પ્રમાણે છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમઃપ્રભા પૃથ્વીમાંથી નીકળેલા નૅરયિક જીવેા સીધા નૈયિક, દેવ, એકેન્દ્રિય, વિકલેન્દ્રિય, સ’મૂ`િમ પંચેન્દ્રિય અને અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા જીવેશમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. તે શિવાયના તિય ગ્, મનુષ્ચામા ઉત્પન્ન થાય છે. તથા અધસપ્તમી પૃથ્વીમાંથી નીકળેલા નૈયિક જીવા સીવા ગજ તિક્ પંચેન્દ્રિયામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. બાકીના તિય ચામાં, દેવામાં અને મનુષ્યામાં ઉત્પન્ન થતા નથી. ાસૂ. રા
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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