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________________ जीवामिगमचे धृति वा मति वा उपलभेत स नारकः, तत:-'सीए' शीतः 'सीई भृए' शीती भूतोऽतिशयेन शान्तः 'संकममाणे संक्रममाणे संक्रामन् संक्रामन् 'साया सोक्ख बहुलेयावि' सातासौख्य बहुलश्चापि 'विहरेज्जा' विहरेदित स्ततः परिभ्रमेदिति । एतावत् कथिवे भगवति गौतमः पृच्छति-'भवेयारूवा सिया' भवेदेतद्रूपा वेदना स्यात् संभाव्यते एतद् यथा भवेद् उप्णवेदनीयेषु नरकेपु एतद्रूपा उप्णवेदनेति । भगवानाह-'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः 'गोयमा' हे गौतम ! कोऽर्थों न समर्थः स्तत्राह-'उसिणवेयणिज्जेसु नरएसु' उष्ण वेदनीयेषु नरकेषु रिथता ये 'नेरइया' नैरयिकास्ते 'एत्तो अणितरियं चेव उसिणवेचणं पच्चणुभवमाणा विहरंति' इतोऽनिष्टतरिकामेव उष्णवेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति इतोऽनन्तरं मतिपादिताया भेज्जा' अपनी भूली हुई स्मृति को, थोडी पछुत शान्ति को चित्त की स्वस्थता रूप धृति को एवं मति को, भी पा लेता है अतः 'सीए सीती भूए' शीत रूप हुआ और शीतीभूत हुआ-अपने आप में शान्ति का अतिशय रूप से अनुमक्ष करता हुआ-वह नारक 'संगममाणे संकमा माणे' वहां से हट कर 'सायासोक्खबहुले बाधि विहरेजा' साता और लुख बहुल स्थिति वाला बन जाता है प्रभु के इल प्रकार के कहने पर गौतम ने प्रलु से ऐसा पूछ। हे भदन्त ! 'भवेयारूवे लिया तो क्या उन उष्ण वेदनीय नरकों में इस प्रकार की उष्ण वेदना है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'णो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'उलिणवेयणिज्जेसु नभएप्लु नेरक्या उष्ण वेदना वाले नरकों में स्थित नैरपिक 'एत्तो अणिमारियं चेव उसिणवेधणं पच्चणुभत्रमाणा अई वा उपलभेजा' पाताना मुली स्मृतिन याडीह शांती भित्तनी २६३५ ३५ तिन मन भतिने ५ पामे छे. तेथी 'सीए सीतीभूए' शीत ३५ थयेस અને શીતભૂત થયેલ પિતે પિતાનામાં શાંતિને અતિશયપણાથી અનુભવ કરતે थ त ना२४ 94 'संकममाणे संकममाणे त्यांची टीने 'सायासोक्खबहुले શાવિ વિદોદના” સાતા અને સુખ બહુલ સ્થિતિવાળો બની જાય છે. પ્રભુએ આ પ્રમાણે કહેવાથી ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવું પૂછે છે કે હે ભગવન 'भवेयारूवेसिया' तो शुमा युवेना वा नारीमा मा। प्रारनी Beeg बहना छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसु 'णो इणढे समदे' गौतम! मा म मरेराम२ नथी. भ 'उसिगवेयणिज्जेसु नरए नेरइया' वेहना q न२ मा २४सा मेथि। 'एत्तो अणिद्वतरिय चेव उसिणवेयण पच्चगुभवमाणा विहरंति' पूति नाथी ५ पधारे मनिष्टत२ मेवी वहनाना
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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