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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् २९५ कथितार, 'तं जहा तद्यथा-'काले' काला-काकनामको महानरकः, 'महाकाले महाकाळनामको महानरका, 'रुरुए गैरवनामकः 'महारुरुए' महारौरवनामकर, मे चत्वारो नरकाः समस्तमाप्रमायाः सप्तम्यात दिक्षु वर्तन्ते, मध्येतु अपतिकाणे पाविष्ठाननामको महानरको विद्यते । 'तस्थ' तत्र-अपतिष्ठाननामके महानरके 'इमे वक्ष्यमाणस्वरूपा वक्ष्यमाणनामधेयाश्च 'पंचमहापुरिसा' पञ्चमहापुरुषाः "मणुत्तरेहि' अनुत्तरी सर्वोत्कृष्ट प्रकर्षमाप्तैः 'दंडसमादाणेहि' दण्डसमादान: समादीयते कर्म एभिरिति समादानि कर्मोपादानहेतवा दण्डाएव-मनोदण्डादयः 'प्राणव्यपरोपणाध्यवसायरूपाः समादानि इति दण्डसमादानि, दैर्दण्डसमादान: "काळमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'सस्थ अपरतिद्वाणे नरए' अपतिः .ष्ठ ननामके नरके 'नेरइयत्ताए' नैरस्कितया उत्पन्नाः। के ते पश्चोत्पन्नास्ववाहइनके नाम हैं 'काले १, काल २, 'महाकाले' महाकाल 'रोरुए ३, रौरव 'महारोहए' ४, महा रौरव और 'अप्पाहाणे' ५, अप्रतिष्ठान' इनमें यह अप्रतिष्ठान नरक सातवी पृथिवीं के मध्य में है और काल आदि चार - महानरक उसकी चारों दिशाओं में हैं। सातवी में ये वक्ष्यमाण स्वरूप वाले 'पंचमहापुरिसा' पांच महा पुरुष 'अणुत्तरे' अनुत्तर-जिन से अधिक और दण्ड समादान नहीं हो सकते हैं ऐसे 'दंडसमादाणेहि' 'दंडसमा दानः' मन दण्ड समादानों के प्रभाव से अर्थात् कर्मों की सर्वोत्कृष्ट स्थिति और सर्वोत्कृष्ट अनुभागबंध कराने वाले प्राणि हिंसा आदि के अध्यवसाय रूप कारणों के प्रभाव से 'कालमासे कालं किच्चा' मृत्यु के अवसर पर मरण करके 'तत्थ अप्पतिट्ठाणे' उस अप्रतिष्ठान नाम के निरकावास में उत्पन्न हुए हैं । तात्पर्य कहने का यही है कि सातवी पृथि स, 'महाकाले २. महा 'शेरुए' ३ शै२५ 'महारोरुए' ४ महाराष अपइटाणे'५ अप्रतिहान-माभासा मतिन न२४ सातमी पृथ्वीना मध्यमा છે. અને કાલે વિગેરે ચાર મહા નરકે તેની ચારે દિશાઓમાં છે. સાતમી धामा-भावामा भावना२ २१३५ पास 'पंचमहा पुरिसा' पाय महा .''३५ 'अणुतरे' भनुत्तर मेट नाथी पधारे भी न खाय पा 'द उपमादाणेहि' दडसमादानैः' ते 3 समानाना प्रमाथी अर्थात् કર્મોની સંસ્કૃષ્ટ સ્થિતિ અને સર્વોત્કૃષ્ટ અનુભાગબંધ કરાવવાવાળા પ્રાણિહિંસા गरेना मध्यवसाय ३५ ॥२॥ना प्रमाक्या 'कालमासे काल किच्चा भुत्यु नमसरे भरण पाभान 'तत्थ अप्पइदाणे' मप्रतिष्ठान नामनी नवास भां- Sपन्न यया छ:- . . * આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સાતમી પૃથ્વીની આ અપ્રતિષ્ઠાને નામ
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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