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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ स्.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् २६९ पुढवीए' शर्करामभायां पृथिव्याम् 'जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई' जघन्येन त्रीणि गव्यतानि, 'उक्कोसेणं अधट्ठाई उत्कर्षेण अर्द्धचतुर्थानि एवं अद्धद्धगाउयं परिहाया' एवमर्धाधगव्यूतं परिहीयते परिहरणीयमित्यर्थः 'जाव अहेसत्तमाए' यावदधः सप्तम्याम् । तथाहि--३ वालुकापभायां जघन्येन-साईयोजनद्वयम्. उत्कण त्रीणियोजनानि, ४ पङ्कमभायां जघन्येम द्वे योजने, उत्कण सार्द्ध द्वे योजने, ५-धूम. प्रभायां जघन्येन सार्द्ध योजनमेकम् उत्कर्षेण द्वे योजने, ६-तम प्रभायां नारका जघन्येन एकं योजनम् उत्कर्षेण सार्द्ध मेक योजने यावत् अवधिज्ञानेन जानन्ति पश्यन्ति च । अधः सप्तमपृथिव्यां नारकाः 'जहन्नेणं अद्धगाउयं' जघन्येनाद्ध गव्य॒तम् 'उक्कोसेणं गाउयं' उत्कर्षेण गव्यूतमिति ।। सम्पति-नारकाणां समुद्धात दर्शयितुमाह-'इमीसे णं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाण' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां के पदार्थों को जानते हैं। 'सक्कर पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! शर्कग. प्रभा पृथिवी के नैरयिक अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते है और देखते हैं ? 'गोयमा! जहन्नेणं तिनि भाउयाई उक्कोसे णं अट्ठाई हे गौतम! शर्कराप्रभा के नैथिक अवधिज्ञान से कम से कम तीन कोश तक के पदार्थों को जानते हैं और उत्कृष्ट से साढे तीन कोश तक के पदार्थों को जानते हैं। 'एवं अद्धद्धगाउयं परिहायति' इस तरह अधः सप्तमी पृथिवी तक आधा आधा कोश कम करते जाना चाहिये. इस प्रकार से सप्तमी पृथिवी के नैयिक जघन्यसे आधे कोश तक के और उस्कृष्ट से एक कोश तक के पदार्थों को अपने अवधिज्ञान द्वारा जानते हैं। अथ समुद्घात का कथन करते है-'इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए ગૌતમ ! રત્નપ્રભા પૃત્રીમાં નૈરયિકે ઓછામાં ઓછા ૩ સાડાત્રણ ગાઉ સુધીના પદાર્થોને અવધિજ્ઞાન નથી જાણે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ચ ર ગાઉ સુધીના पहान छे. 'सक्करप्पभाए पुढवीए' 3 मगवन् शUAL पृथ्वीना नैयिही अवधिज्ञानथी सा क्षेत्रने छ १ अने हे छ १ गोयमा ! जहण्णेण तिन्नि गाउयाइ' उकासेण अद्ध द्वाई गौतम शरामा पृथ्वीना રયિકો અવધિજ્ઞાનથી ઓછામાં ઓછા ત્રણ ગાઉ સુધીના પદાર્થોને જાણે છે. मन था सा सुधीनपानि त छ. 'एवं अद्वद्धगाउ परिहायति' मा प्रमाणे माससमी पृथ्वी सुधी मधे मधे 16 191 ४२॥ જવું જોઈએ. એ રીતે સાતમી પૃથ્વીના નૈરયિકે જઘન્યથી અર્ધા ગાઉ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક ગાઉ સુધીના પદાર્થોને પિતાના અવધિજ્ઞાન થી જાણે છે. समुदधात दार ४थन ४२वामा माय छे. 'इमीसे ण भंते । रयण
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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