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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १२७ जोयण ससस्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अबाधया अन्तर' प्रज्ञप्तम् 'हेठिल्ले वि असंखेज्जाई' जोयणसय सहस्लाई' तनुवातस्याधस्तनचरमान्तोऽपि असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अन्तर प्रज्ञप्तमिति ' एवं ओवासंतरे वि' एवमवकाशान्तरमपि रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपस्तिनाच्चरमान्वात् अवकाशान्तरस्योपरितनश्चरमान्तः, एतद् असंख्येयोजनशतसह मन्तरं भवतीति ॥ प्रथमरत्नप्रभा पृथिवी विषयकमन्तर घतिपाद्य सम्प्रति द्वितीय शर्कराप्रमादि पृथिवी विषयमन्तरं दर्शयितुमाह- 'दोच्चार णं' इत्यादि, 'दोच्चारणं भंते' असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साह' अबाधाए अंनरे पनते' इस रत्न - प्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से तनुवात वलय का जो उपरितन मान् है वहां तक असंख्यात लाख योजनों का अन्तर है. 'free वि असंखेज्जाई जोयणसय सहस्साई' इसी तरह से तनुचात का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक भी रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से असंख्यात लाख योजनों का अन्तर है । ' एवं ओवासंतरे वि' इसी तरह से रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से रत्नप्रभा पृथिवी सम्बन्धी अवकाशान्तर का जो उपरितन चरमान्त है वहाँ तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है तथा अवकाशान्तर का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है । इस तरह प्रथम नारक पृथिवी के घनोदवि आदिकों का अन्तर one करके अद्वितीय शर्कराप्रभा पृथिवी का अन्तर सूत्रकार प्रकट तणुत्रायस उवरिल्ले चरिमते अस खेज्जाई जोयणसय सहस्वाइं अबाधार अंतरे पन्नत्ते' या रत्नप्रभा पृथ्वीना थरभान्तथी तनुत्रातवसयनु ने उपरनु थरभान्त छे, त्यां सुधी असंख्यात लाभ योजनतु अंतर है. 'हेट्टिल्ले वि स खेज्जाई जोयणचयवहस्साइ" मेन प्रमाणे तनुवात वसयो ने अधस्तन नीथेन। यरभान्त છે. ત્યાં સુધી પણ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી અસખ્યાત લાખ यो नानु म ंतर छे. 'एवं ओवास तरे वि' प्रमाणे रत्नप्रभा पृथ्वीना ઉપરના ચરમાન્તથી રત્નપ્રભા સંબધી અવકાશાન્તરનું જે ઉપરનું ચરમા ત છે. ત્યાં સુધીમાં અસંખ્યાત લાખ ચૈાજનાનું અંતર છે તથા અવકાશાન્તરનુ જે નીચેનું ચરમાંત છે, ત્યાં સુધી પણ અસંખ્યાત લાખ ચેાજનનું અંતર છે. આ રીતે પહેલી નારક પૃથ્વીના ઘનેદધિ વિગેરેનું અંતર અતાવીને હવે બીજી શક`રાપ્રભા પૃથ્વીનું અંતર સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે. આમાં ગૌતમ
SR No.009336
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages924
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size62 MB
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