SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ औपपातिकस्ने तिव्वच्छाए , घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंव ‘घणकडियफडिच्छाए' 'घनकटितकडिन्छायः'-परस्पर शासानामनुप्रवेशाद् धन - सान्द्र , कटित -कटाच्छादित इव निविडबहुलनिरन्तरच्छाय इत्यर्थ । रम्यं -रमणीयगुणयुक्त । 'महामेहणिकुरंवभूए' महामेधनिफरम्यभूत --महान्त -विशाला, मेघाः-जलपरा , तेषा निकुरम्बम्-महामेघनिकुरम्यम् सजलजलदवृन्दम् ' तथाभूत तसदृश --महामेरनिकुरम्वभूतः महाजलदवृन्दोपम सश्रीक श्यामतमो वनपण्ड इति यावत् ॥ सू ३॥ पर इतनी चिकनी थी कि लोगों को इसकी प्रभा में भी चिकनाई लक्षित होती थी । वर्णादिक से यह तोत्र एव तीन छायावाला या । (घणकडियफडिन्छाए रम्मे महामेहणिकुरवभूए ) यहा जितने भी वृक्ष थे उन सकी शाखाएँ एक दूसरे वृक्षों की शाखाओं से परस्पर मे मिल गई थीं, इससे यहां छाया की आयत सघनता रहा करती थी । यह वन बडा ही सुहावना लगता था। ऐसा मालूम पड़ता था कि मानो महामेघों का यह एक विशाल समुदाय ही है। अथवा (किण्हे ) इत्यादि पदों की व्याख्या इस प्रकार भी हो सकती है-अत्यत सघन होने से इस वनखड मे मूर्य की किरणों का प्रवेश तक भी नहीं हो सकता था इसलिये इसमे चारों ओर अधकार छाया रहता था, अत यह काला जैसा प्रतीत होता था। जैसे मयूर का कठ नीला होता है यह भी उसी तरह नीला था । इसमे हरे२ पत्तों की प्रचुरता थी इसलिये इस वनको काति भी तोते की पाखों-जैसी हरी जात होती थी । वन का હતી કે લેકેને જેની પ્રભમાં પણ ચિકાશ લાગતી હતી 'વર્ણાદિક(રૂપરંગ)થી ये तीन मा तछायावा तो (घणकडियकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरबभूए ) सही रक्षा वृक्षा ता' ते मायनी सामान्य એક બીજા વૃક્ષની શાખાઓ સાથે પરસ્પર મળી ગઈ હતી આથી અહી છાયા બહુ જ ઘાટી થઈ રહી હતી આ વન ઘણુ જ ભાયમાન લાગતુ હતુ એમ જણાતું હતું કે જાણે મહામેઘને એ એક મોટે સમુદાય જ છે मया (किण्हे) छत्याहि होनी व्याच्या गभ ५५५ मत्यत ઘા હોવાથી આ વનખ ડમાં સૂર્યના કિરણને પ્રવેશ માત્ર પણ થઈ શકતો નહિ એથી તેમાં ચારે તરફ અધિકાર છવાઈ રહેતો હતો તેથી તે કાળા જેવું પ્રતીત થતુ હતું જેમ મેરને કઠ લીલો હોય છે તેમ આ પણ લીલું હત એમાં લીલાછમ પાદડા બહું જ હતા, તેથી આ વનની કાતિ પણ પોપટની પાછે જેવી લીલી જણાતી હતી વનને સ્પર્શ ઠડે એ કારણથી
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy