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________________ ७१० স্লীবধানিক माहिद-बंभ-लंतग-महालुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय-आरण -अञ्चुए तिण्णि य अटारे गेविजविमाणावाससए वीईवडत्ता विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय-सव्वदृसिद्धस्स य महाविमाणस्स सबउवरिल्लाओ थूभियग्गाओ दुवालसजायणाडं अवाहाए एत्थ णं ईसीप-भारा णाम पुढवी पण्णत्ता, पणयालीसं जो सहसाग-ऽऽनत-प्राणताऽऽ-रणाऽच्युतानि, 'तिणि यअद्वारे गेविनरिमाणाराससए' प्राणि च अष्टाढग अवेयविमानावासगतानि-श्यकतिमानावासानाम अष्टादशाधिकगतम्य 'पीदेव:त्ता' व्यनिरय= यती य-उल्लड्ध्य, तर-प्रथमतिकस्य एकादयापिकगन (१११), द्वितीय त्रिकस्य समोत्तरशत (१०७), तृतीयरिकस्य शत (१००) अवेय कपिमानानासान् व्यति कन्येत्यर्थ । 'विजय-वेजयत-जयत-अपराजिय-सबसिद्धम्स य महाविमाणस्स' विजय-वैजयन्त--जयन्ताऽ-पराजित-सर्वार्थसिद्धस्य च महानिमानस्य 'साउवरिल्लाओ' सर्वोपरितनात्, 'थूभियग्गाओ' स्तूपिकापात-शिखरामभागात् 'दुवालस विमाणावाससए) सौधर्म, ईशान, सन कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लान्तक, महाशुक्र, सहसार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत ये १२ देवलोक, एव प्रथमत्रिक के १११, दूसरे त्रिकके १०७, एव तीसरे त्रिकके १०० इस प्रकार तीनमो अठारह गैवेयफ विमानों को (बीईवइत्ता) पार करने के बाद जो (विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय-सक्वट्ठसिद्धम्स य महाविमाणस्स सन्त्रउवरिल्लाओ भियग्गाओ) विजय, वैजयन्त, जयत, अपराजित एवं सार्थसिद्ध ये पाच अनुत्तर विमान आते है, इन महाविमानों के शिखर के अप तिणि य अदारे गेविजविमाणावाससए) भौधभ, शान, सनमार, भाडेन्द्र, प्रहा, दात, भला, ससार, मानत, भात, मा२९, मत्युत આ ૧૨ દેવલોક, તેમજ પ્રથમ ત્રિકના ૧૧૧, બીજ ત્રિકના ૧૦૭, તેમજ त्री विना १००, रीतेसो सतार (3१८) अवय विमानाने (पीईचइत्ता) पार ४या पछी २ (विजय-वेजयत-जयत-अपराजिय-सव्वदृसिद्धरस य महाविमाणस्म सव्ववरिल्लाओ थूभियग्गाओ) विय, यन्त, यत, मस्ति , તેમજ સર્વાર્થસિદ્ધ એ પાચ અનુત્તર વિમાન આવે છે, એ મહાવિમાનના शिमन RARIAथी (दुवालसजोयणाइ अनाहाए) १२ या २ orat
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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