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________________ ७०० औपपातिकमरे नीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं काल चिट्ठति ॥ ९३॥ मिद विशेषगम्, 'जीवघणा' जीनघना --जीवाच ते धना जीपयना -अन्तररहितत्वेन जीवप्रदेशमया , योगनिरोधकाले ध्रपूरणेन निमागोनावगाहनाया सद्भायादित्यर्थ , 'दंसणनाणोवउत्ता' दर्शनज्ञानोपयुक्ता-दर्शनम् अनाकार, जान=साकार, तयोरुपयुक्ता , ' निहियट्ठा' निष्ठिताया =कृतकृत्या -समामसर्वप्रयोजना इत्यर्थ । 'निरेयणा' निरेजना =निश्चला -स्थिरा इत्यर्थ , नीरया' नीरजस =बध्यमानार्मरहिता इत्यर्थ , यद्वा-नीरया इतिछाया, रयो, वेगस्त दहिता =निरहेगा -निरौत्सुक्या इत्यर्थ । 'णिम्मला' निर्मला पूर्वनकर्म- निमुक्ता , 'वितिमिरा' वितिमिरा-विगताजाना , 'पिसुद्धा' विशुद्धा =कर्मविशुद्धप्रकर्षमुपगता , इससे भगवान का यह अभिप्राय प्रगट होता है कि शरीरसहित जीव कभी भी मुक्त नहीं होता है। (जीवघणा) अन्तररहित होने से वे भगवान जीवप्रदेशमय रहते हैं । अत के शरीर की अवगाहना से उनकी सिद्-अपस्था में अवगाहना कुछ कम रहती है। योगनिरोधकाल मे शरीर के छेदों के पूरण हो जाने से त्रिभाग-ऊन उनकी अवगाहना बतलाई गई है। (दसणणाणोवउत्ता) दर्शन एव ज्ञान से वे उपयुक्त रहा करते है। अनाकार ज्ञान का नाम दर्शन एव साकार ज्ञान का नाम ज्ञान कहा गया है । (निट्ठियट्ठा) समस्त मनोरथ सिद्ध हो जाने से एव कुछ भी कार्य करने के लिये बाकी नहीं रहने से वे भगवान् कृतकृत्य कहे जाते है । तथा (निरेयणा) ये निश्चल, (नीरया) बध्यमान कर्मों से रहित, अथवा निस्द्वेग, (णिम्मला) निर्मल-पूर्ववद्धकमी से निर्मुक्त, (वितिमिरा) अज्ञानरूप तिमिर से अतीत, પણ આપ્યું છે આથી ભગવાનને આ અભિપ્રાય પ્રગટ થાય છે કે શરીરसडित व ४६ ११ भुत था नथी (जीवघणा) मत२२डित डोपाथी તે ભગવાન જીવપ્રદેશમય રહે છે અને શરીરની અવગાહનાથી તેમની સિદ્ધ-અવસ્થામાં અવગાહના જરા ઓછી રહે છે જેગ-નિરાધ કાળમાં શરીરના છેદના પૂરણ થઈ જવાથી વિભાગન્યૂન તેમની અવગાહના બતાવેલી છે (दसणणाणोवउत्ता) नि तेभन ज्ञानथी तसा उपयुत रहा ४२छ मनाहारज्ञाननु नामशिनतम सा२ ज्ञाननु नाम शानदायछ (निद्रिया) समस्त मनोरथ સિદ્ધ થઈ જવાથી તેમજ કાઈ પણ કાર્ય કરવાનું બાકી ન રહેવાથી તે ભગવાન કૃતअन्य उपाय तथा (निरयणा) तमो निश्चल, (नीरया) मध्यभान ४ाथी शक्षित,मथवा निरुदेग, (णिम्मला) निज-भूमि माथी निभुत, (वितिमिरा) मज्ञान३५ तिभिर-१५४ाथी मतीत, (विसुद्धा) मीना विनाशथा यती
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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