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________________ tafa हस्तपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेजसमइयं अंतोमुहत्तियं सेलेसि पडिवज्जइ, पुव्वरइयगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए अयोगच प्राप्नोति, ' अयोगत्तं ' पाउणित्ता' अयोगव' प्राप्य, 'ईसिंहस्सपंचक्रवरुचारणद्धाए ' ईषद्भस्यपत्र्याऽक्षरोचारणाऽद्रायाम्-ईपत्-अन्यानि यानि दूस्वानि पञ्चानराणि तेषा यदुच्धारण तस्य याsद्रा = काल सा तथा तस्याम्, इदमुधारणं न द्रुत न विलम्बित किन्तु मध्यममेव गृल्यते, ' असखेज्जसमइय' अमरयेयसमयिकाम्, 'अतोमुहुत्तिय ' आन्तमहर्तिको 'सेलेसि 'शैलेगी-शैलानामीग शैलेशो मेर, तम्येव या स्थिरता = साम्याय चस्था सा शैलेशी ताम्, अथवा - गीलेश = सर्वमंनररूपचारिग्वान्, तस्येयमनस्था योगनिरोधरूपा शैलेशीता, डोलेश्यवस्थाया केपली वेदनीयादिकर्मचतुष्टय क्षपयति, तत्प्रकारमाह ' पुच्चरइय' इत्यादि । 'पुब्वरइयगुणसेढीयं च यण कम्प' पूर्वरचितंगुणश्रेणिक च कर्म, पूर्व== शैलेश्यवस्थाया प्राग् रचिता गुणश्रेणी यस्य तत्तथा, का नाम गुणश्रेणी उच्यते 1 " 4 ६९४ 3 " 1 इ) अयोग - अवस्था को प्राप्त हो जाते है, ( पाउणित्ता ईसि-इस्स-पचक्खर - चारणद्धा असज्ज समय अतोमुहुत्तिय ) अयोगी - अवस्था को प्राप्त हो जाने के बाद ' ह्रस्व पाच अक्षर के उच्चारण काल-प्रमाण समय में, अर्थात् 'अन्यात समय' के अतर्मुहर्त जैसे काल मे (सेलेसिं पडिवज्जइ) वे शैलेशी - अवस्था को प्राप्त करते हैं, अथवा सर्व कर्मों के म्वररूप चारित्र वाले की अवस्था को - योगनिरोधरूप अवस्था' को प्राप्त करते है । इस शैलेशा-अवस्था में केवली किस प्रकार से वेदनीय ' आदि चार अघातिया कर्मों को क्षय करते है, इस बात को प्रगट करते हुए सूत्रकार कहते है कि (पुनरर्यगुणसेढीय चण कम्म तीसे सेलेसिमद्धाए असखेज्जाहिं गुणसैदी हि अणते कम्मसे खवयं ते) शैलेशी-अवस्था के पहिले जिन कर्मों की गुणश्रेणी रची जायँ '' गुणश्रेणि कर्म हैं। गुण ܐ છે ( पाउणित्ता ईसिंहस्सपचक्त्ररुच्चारणद्वाए असखेज्जसमइय अंतोमुहुत्तिय ) અચેાગી--અવસ્થાને પ્રાપ્ત થઇ ગયા પછી હસ્વ/પા અક્ષરના ઉચ્ચારણકાલ– પ્રમાણુ સમયમા, અર્થાત્ અસ ખ્યાત સમયના અતર્મુહૂત જેવા કાલમા ( सेलेसि पडिवज्जइ ) तेथे शैवेशी व्यवस्थाने आत कुरे । छे, अथवा भर्व 1 3 કાના સ વરરૂપ ચારિત્રવાળાની ; અવસ્થાને—યે નિરોધરૂપ અવસ્થાને પ્રાપ્ત કરે છે. આ શૈલેશી અવસ્થામા કેવલી કેવા પ્રકારથી વેદનીય ક્રિ ચાર અઘાતિયા કર્મોનો ક્ષય કરે છે? એ વાતને પ્રકટ કરતા સૂત્રકાર કહે छे (पुव्वरइयगुण सेदीय व ण कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असखेज्जाहिं गुणसेढीहिं अणते कम्मसे खवयते ) शैबेशी व्यवस्थानी (थडेसा के भनी सुश्रेणी रथी
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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