SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 789
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८० ओपपातिकमा विईए समए कवाडं करेइ, तइए समए मंथं करेइ, चउत्थे दडं करेड' प्रथमे समये दण्ड करोति-प्रथमे समय ऊर्ध्वाधोलोकान्त यावत्प्रसारितैरा स्मप्रदेशैर्दण्डाकारता पुरते । 'पिए समए कबाड करेइ द्विताये ममये कपाट करोतिद्वितीये समये पूर्वपधिमयोर्दिशोविस्तृतरामप्रदेौरव कपाटाकारता पुरते । 'तइए समए मथ करेइ ' तृतीये समये मन्थान करोनि-तृतीये समये दक्षिणोत्तरयार्दिशोरप्या मप्रदेश कपाटाकारविस्तृतैर्मन्थानाकारता शुरुते । 'चउत्पे समए लोय पूरेड' चतुर्थे समये लोकं पूरयति-चतुर्थे समये तदन्तरालपणेन सर्वलोकस्य पूरण उरुते । एव समुद्धात कुवन् केवली चतुर्भि समयैर्विश्वव्यापी भवति । एव केवली स्वात्मप्रदेशाना विस्तारणेन कर्मलेशान् समीकृत्य विपरीतकमेण समुआत्मप्रदेश दण्डाकार होते है, अर्थात् प्रथम समय में उर्वलोक एव अधोलोक के अन्त तक प्रसारित होकर आत्मप्रदेश दडाकारता को धारण करते है। (विईए समए कवाड करेड) द्वितीय समय में वे ही आत्मप्रदेश पूर्व और पश्चिम दिशा में विस्तृत होकर कपाटाकारता को धारण करते है। (तइए समए मथ करेइ) तृतीय समय मे दक्षिण और उत्तरदिशा में विस्तृत होकर मन्थान के आकार हो जाते हैं। (चउत्थे समए लोय करेइ) चतुर्थ समय में इनके अन्तराल की पूर्ति करते हुए वे समस्त लोक को पूरण कर देते है, अर्थात् समस्त लोक मे फैल जाते है। इसका नाम लोकपूरणसमुद्घात है। इस प्रकार आत्मप्रदेशों को फैलाने-रूप समुद्घात करते हुए वे केवली ४ चार समयों में विश्वव्यापी बन जाते है, पश्चात प्रसारित उन आत्मप्रदेशों को मुकुचित करते है। इस क्रिया में भी उहे ते सभुधात मारे थाय छ, (पढमे समए दद करेइ) प्रथम समयमा કેવળના આત્મપ્રદેશ દડાકાર હોય છે, અર્થાત પ્રથમ સમયમા ઉદ્ઘલક તેમજ અલાકના અંત સુધી ફેલાઈ જઈને આત્મપ્રદેશ દ ડાકોર ताने धारण ४२ छ (बिईए समए कवाड करेइ) मीन समयमा ते मामપ્રદેશ પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશામાં વિસ્તાર પામીને કપાટના આકારને ધારણું ४रे छ (तइए समए मथ करेइ) श्री समयमा दक्षिण तथा उत्तर हिशामा विस्तार पाभीने भन्थानना मार धारण ४२ छ (चरथे समए लोय पूरेड) ચોથા સમયમાં તેના આ તરાલની પૂર્તિ કરતા કરતા તે સમસ્ત લેકને પૂરણ કરી દીએ છે, અર્થાત્ સમસ્ત લેકમાં ફેલાઈ જાય છે આનું નામ લોકપૂણસમદુલાત છે આ પ્રકારે આમપ્રદેશના ફેલાવા રૂપ મુદ્દઘાત કરતા કરતા તે કેવલી જ સમયમાં વિશ્વવ્યાપી બની જાય છે, પછી પ્રસારેલા તે આત્મકરશને સ કશિત કરે છે આ ક્રિયામાં પણ તેને ૪ સમય લાગે છે માટે તે
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy