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________________ ६६८ औषपातिकसूत्रे - फासं जाणइ पासइ ? गोयमा! णो इणहे समहे ॥ सू० ७२ ॥ ___ मूलम्-से केणटेणं भंते । एवं चुचइ-छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वपणेणं वणं जाव जाणइ पासइ ॥ सू० ७३ ॥ कालादिरूप, 'गधेन गध' गन्धेन गन्धम्, 'रसेन रस' रसेन रसम्, 'फासेण फास' स्पर्शेन स्पर्श 'जाणइ' जानाति विशेषत , 'पासई पत्यति सामान्यत किम् , उत्तरमाह'गोयमा' हे गौतम ! 'णो इणटे समटे' नायमर्थ समर्थ =सगत , कर्मपुद्गलाना साऽतिगयज्ञानगम्यत्वात् । अत्र उमस्थगन्देनातिशयज्ञानरहितस्य विरक्षितत्वादिति भाव । एव गन्धादयोऽपि ज्ञेया ॥ सू० ७२ ॥ टीका-'से केणद्वेण भते " इत्यादि ! 'से केणद्वेण भते ! अब केनाऽर्थेन भदन्त ! 'एव बुचई' ण्वमुच्यते-'उउमत्ये ण मणुस्से' उद्मस्थ खल मनुष्य 'तेसि णिज्जरापुग्गलाण' तेपा निर्जरापुद्गलाना 'णो किंचि वण्णेणं चण्ण जाव जाणइ पासई' नो किञ्चिद्वर्णेन वर्ण यारजानाति पश्यति ॥ सू० ७३ ॥ गण गध रसेण रस फासेण फास जाणइ पासइ) वर्ण से वर्ण को, गध से गंध को, रस से रस को और स्पर्श से स्पर्श को जानता है देखता है ? उत्तर--(गोयमा') हे गौतम ! (णो दणद्वे समझे) यह अर्थ सिद्धान्त से समर्थित नहीं है। अर्थात् छमस्थ केवली भगवान् के निर्जराप्रधान पुद्गलों के रूप, रस, गध, और स्पर्श को किंचिन्मात्र भी नहीं जान सकता है, न देख सकता है ।। मू ७२ ।।। _ 'से केणटेण भते! ' इत्यादि । (भते । ) हे भदत । (से) यह बात (केणद्वेण एव वुच्चइ ) किस-कारण ऐसी कही વણને, ગધથી ગધને, રનથી રસને અને સ્પર્શ થી સ્પર્શને જાણે છે? ? त्तर-(गोयमा !) गौतम (णो इणदे समटे) मा अर्थ સિદ્ધાતથી સમર્થન પામેલ નથી, અર્થાત્ છસ્થ પુરુષ કેવલી ભગવાનના નિરાપ્રધાન પુદગલના રૂપ, રસ, ગ ધ તથા સ્પર્શને કિચિત માત્ર પણ જાણી શકતા નથી, તેમ જોઈ શકતા પણ નથી (સૂ ૭૨) 'से केणट्रेण भते ।' त्याह (भते ।) महन्त ! (से) मा पात (केणटुंण एव बुन्चइ) 0
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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