SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ औषधावियो य-गायगंठिभेयग-भड-तकर-खंडरक्ख-रहिया खेमा णिस्वदवा सुभिक्खा वीसत्थसुहावासा अणेगकोडिकुडंवियाइण्ण-णिवुय-सुहा 'उकोडिय-गायगठिभेयग-भड-तकर-खंडरक्ख-रहिया औकोटिकगात्रप्रन्थिमेतकभट-तस्कर--खण्डरक्ष-रहिता, उन्कोटरकोचर्यवहरन्ति ते औत्कोटिफारचग्राहिण , गात्रा फरिप्रदेशादे सकाशाद् अन्धि मिन्दन्तीति गारग्रथिभेदका गुप्तरीत्या प्रन्थिहारिण , भटा-हठाल्छण्टाका , तस्करा -चौरा खण्डरक्षा शुल्कपाला, देशसीमाया स्थित्वा ये राजकर गृहन्ति ते, एतै रहिता-एतेषामुपदवैर्वर्जिता सवोपद्रवविरहितेत्यर्थ , अतएव 'खेमा' क्षेमा-कुशलत्वरूपा अशुभाभावात् , 'णिरुषवा' निरुपद्रया, स्वचक्रपरचक्रोभयचकृतोपद्रवविरहिता। 'सुभिक्खा' सुभिक्षा-सु-सुलमा भिक्षा भिक्षणा यत्र सा तथा, 'वीसत्यमुहावासा' विधस्तमुखावासा-विश्वस्त-विश्वासमुपगत निश्चित सुरस आवासे निवासस्थाने यस्या सा तथा, 'अणेगकोडिकुडुवियाइण्ण-णिन्चुय-सुहा' रहिया) इसमें किसी भी प्रकारका भय नहीं था, न तो लाच लेने वाले जन यहा थे और न गुप्तरीति से गाठ कतरनेवाले अन्थिच्छेदक लुटेरे यहा थे । न यहा भट-- जबरदस्तो लटने वाले डाक थे और न तस्कर-चोर हा थे । ऐसा भी कोई यहा नहीं था जो देशकी सीमा में खड़ा होकर राजा के टक्स को लोगों से जोर-जुल्म द्वारा अपहरण करनेवाला हो । तात्पर्य यह है कि यह नगरी समस्त प्रकार के उपद्रवों से रहित थी। इसीलिये यहा पर (खमा णिरुबद्दवा मुभिक्खा वीसत्यमुहावासा) क्षेमा कुशलता बनी रहती थी, निरुपद्रया-स्वचक्र और परचक्र का भय यहा नहीं था । मुभिक्षा-भिक्षुओको भिक्षा भी सदा सुलभ थी। विश्वस्तसुखावासायहा का निवास जनता को सुखकारक था। मकानका दरवाजा खोलकर भी रात्रि को जनता કોઈ પણ પ્રકારને ભય નહોતે નતે લાચ લેવા વાળા અને અહી હતા કે ન તે ખીસાકાતરૂ લુટારા અહીં હતા નહોતા અહી ભટજબરદસ્ત લૂટવાવાળા ડાકઓ કે નહતા તસ્કરચાર કે એવા પણ કોઈ અહીં નહતા કે જે દેશની હદમાં ઉભા રહીને રાજાના કરને લોકો પાસેથી જે રજુલમથી પડાવા લેવાવાળા હોય તાત્પર્ય એ છે કે આ નગરી સમસ્ત પ્રકારના ઉપદ્રથી રહિત हती सटसा भाटे महा (खेमा जिरवद्दवा सुभिक्सा वीसस्थसुहावासा) क्षेमादुशलता आयभरती ती, निरुपद्रवा-बय अने परस्य ना लय सही नहाती समिक्षा-भिभुभाने मिक्षा ५ मा ती विश्वस्तसुखावासा-महीना निवास જનતાને સુખકારક હ મનના, બારણું ઉઘાડા રાખાને પણ લેકે રાત્રિમાં
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy