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________________ - ४९८ औपपातिकमरे महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।। सू. १॥ अनेकयोजनप्रमाणाऽन्तर्वर्तिवस्तुदहनसमर्थत्वाद् विशाला तेजोश्या-विशिष्टतपःसम्भूतलन्धिविशेषोद्भवा तेजोज्वाला यस्य स तथाभूत सन् 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽदूरसमीपे-अदूरसमणेि-नातिदूरे नातिसमीपे-उचितदेशे, 'उड्ढजाण' उर्वजानु ऊर्षे जानुनी यस्य स ऊर्वजानु - उत्कुटुकाऽऽसनवान्, 'अहोसिरे' अध शिरा अधोमुसो, नो, न तिर्यग् वा क्षितदृष्टि , 'झाण-कोट्ठो-चगए' ध्यान-कोष्ठो-पगत -ध्यान कोष्ठ इस ध्यानकोष्ठस्तमुपगत , यथा कोष्ठगत धान्य विकाग न भवति तथैव ध्यानगता इन्द्रियान्त करगन्तयो बहिर्न यान्तीति आराधना से इन्हें तेजोलेस्या प्राप्त हो चुकी थी, जिसकी इतनी सामर्थ्य होती है कि अनेकयोजनप्रमाण क्षेत्र के भीतर रही हुई वस्तुओ को वह क्षणमान में दग्ध कर डालती है, परन्तु ऐसी विपुल तेजोलेश्या को भी इन्होंने अपने शरीर के भीतर ही अन्तर्हित कर रखी थी, उसका उपयोग नहीं करते थे, और ये (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते) श्रमण भगवान महावीर के न अतिदूर और न अतिनिकट, मिन्तु पास ही कुछ दूरी पर (उजाणू) घुटनों को ऊँचाकर (अहोसिरे) शिर को नीचे कर के (झाण-कोट्ठोवगए) ध्यानरूपी कोठे में विराजमान थे, अर्थात् ध्यान म बैठे थे। ध्यान को जो कोष्ठ की उपमा दी है उसका हेतु यह है कि जिस प्रकार कोठे मे रहा हुआ धान्यादिक इतस्तत (इधर-उधर) नहीं बिखरता है उसी प्रकार ध्यानगत इन्द्रिय एव अन्त करण को वृत्तिया વિપુલતેજોલેશ્ય એ આથી હતા કે તેમને જે કે વિશિષ્ટ તપસ્યાની આરાધનાથી તે વેશ્યા પ્રાપ્ત થઈ ચૂકી હતી, જેનું એટલું સામર્થ્ય હોય છે કે અનેક એજનના પ્રમાણ ક્ષેત્રની અંદર રહેલી વસ્તુઓને તેઓ ક્ષણ માત્રમાં બાળીને ભસમ કરી નાખે છે, પરંતુ એવી વિપુલ તે યાને પણ તેઓએ પિતાના શરીરની અંદર જ અન્તહિત કરી રાખી હતી, તેને ઉપયોગ કરતા नहाता (समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामते) तसा श्रभा लगवान भड़ाવીરની બહુ દૂર નહિ તેમ બહુ પાસે નહિ પણ તેમની પાસે જ છેડે જ દૂર ५२ (उड्ढजाणू) धुर। या ४रीन (अहोसिरे) शिरने नमावीर (झाण-कोडो वगए) ध्यानपी मा विराजमान हुता-मर्थात ध्यानमा हा उता ध्या નને જે કોઠાની ઉપમા આપી છે તેને હેતુ એ છે કે જેમ કોઠામાં ભરેલા ધાન્ય આદિક આમતેમ વિખરાઈ જતા નથી તેમ ધ્યાનમાં ચાટેલી ઈદ્રિ
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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