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________________ पौषषिणी-टीका स ५६ भगवतो धर्मदेशना ४६३ मुच्चंति परिणिवायंति सबढक्खाणमंतं करेति। एगच्चा पुण मार्ग , यत एव सद्गुणगुम्फित नैर्ग्रन्थ प्रवचनम् , अतएव 'दहविया जीवा सिझति' इह स्थिता जीवा सिध्यन्ति-इह नम्रन्थप्रवचने स्थिता -एतदाराधका जीवा सिध्यन्ति सिद्धिपद प्राप्नुवन्ति, अणिमादिसिद्धिं वा 'बुज्झति' बुध्यन्ते-केवलज्ञानप्राप्त्या नि शेपविशेष जानन्ति, 'मुचति' मुच्यन्ते-भवोपग्राहिगा कर्भगा निरगनष्ट मात्, 'परिणिबायति' परिनिर्वान्ति-कर्मजन्यसकलसन्तापविरहात् , वक्तव्यसार वक्ति- सव्वदुक्खाणमत करेंति' सर्वदु खानामन्त कुन्ति-सपा शारीरिकमानसिकाना न खानाम् अन्त-नाश कुर्वन्ति । 'एगचा पुण एगे भयतारो' एकाचा पुनरेके भदन्ता - एफैव अर्चा भविष्यन्ती मनुष्यतनुर्येषा ते एकाएं सन्त , पुनरेके केचिद् भदन्ता नैर्ग्रन्थप्रवसे युक्त है । इसीलिये (इहविया जीवा सिझंति ) जो जीन टसकी आराधना मे अपने जीवन का उत्सर्ग कर देते है वे नियमत सिद्धिपद के प्रापक होते है, (अणिमादिसिद्धिं वा) अथवा इस लोक में अणिमादि सिद्धि के धारक होते है। (बुझंति) केवलज्ञान की प्राप्ति से सभी वस्तुओं को जानते है। (मुच्चति) भवोपग्राहिकमों का सम्पूर्णरूप से नाश होने के कारण वे मुक्त हो जाते है। (परिणिवायति) कर्मजन्य समस्त मताप के विरह से वे शीतलीभूत हो जाते है। (सम्बदुकावागमत करेंति) शारीरिक एव मानसिक समस्त दुखो का वे हा अन्त करनेवाल होते है। (एगचा पुण एगे भयंतारो) इस निर्ग्रन्थ प्रवचन की आराधना करनेवाले भव्य जीव वर्तमान शरीर के छूट जाने के बाद मात्र एक बार मनुष्य गरीर धारण करते है, अर्थात् वे एकारतारी होते है। वे भन्य जीव इस गरीर के छुटने पर (पुवाम्मावसेसेण) पूर्वकर्मी के बॉकी छे तथा ४ (इहड़िया जीवा सिज्झति) 2 4 1नी माराधनामा पाताना જીવનને ઉત્સર્ગ કરી દે છે તેઓ નિયમત –નિશ્ચયથી-સિદ્ધિપદને પ્રાપ્ત થાય छे, (अणिमादिसिद्धिं वा) मा मणिमाहि-सिद्धिने पामे छ (बुज्झति) माननी प्राप्तिथी मधी वस्तुमा त (मुन्चति) भाषाडि भनि। स पू ३पे नाश थवाना र तमो मुश्त थ य (परिणिव्यायति) उभજન્ય સમસ્ત સ તાપના વિરહથી (ત્યાગથી) તેઓ રાતલીભૂત બની જાય છે (सव्वदुक्खाणमत करेंति) शारीरि तभर भानमिड समस्त मोना तेसो गत ४२पा डाय छ (एगच्चा पुण एगे भयतारो) मा निन्य अपयननी मा२।ધના કરવાવાળા ભવ્ય જીવ વર્તમાન શરીર છૂટી જવા બાદ માત્ર એકવાર મનુષ્ય શરીરને ધારણ કરે છે અર્થાત તેઓ એકાવતારી થાય છે તે ભવ્ય -
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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