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________________ ओपाकिस ३७४ ? # 1 कयंधयारं चित्त - परित्थोम - पच्छयं पहरणा, वरण- भरिय - जुद्धविराजितम् - सललितो = लालिययुक्तो यो चरकर्णपूरी - प्रगस्तकर्णाभरणे ताभ्या विराजितम), 'पलन - ओचूल-महुयर कयधयार प्रलम्बा चूलमधुकररुताऽन्धकारम् - प्रलम्बानि अवचूलानि=गजपृष्ठाद्र्ध प्रलग्निशृङ्गारवखारूपाणि यस्य तत्तथा, तथा मधुकरैर्मदजलगन्धलुब्धै कृत अन्धकारो यत्र तत्तया तत - अनयो कर्मधारय तत, ' चित-परिच्छेयपच्छय ' चित्र-परिच्छेक- प्रच्छदम चिनो विचित्र परिच्छेको लघु प्रच्छद आच्छादन वस्त्रविशेषो यस्य तत्तथा तत्, 'पहरणावरण भरिय जुद्ध-सज्ज ' ग्रहरणा - वरण -- मृतयुद्ध - सनम् - प्रहरणावरणैरायुधकचैर्भूत= सम्भृतम्, अत एव युद्धसन्न = युद्राय समुद्यतम्, 'सच्छत' पहिरा दिये गये । (अहियतेयजुत्त) इससे स्वाभाविकरूप से तेज मपन्न वह गजराज देखने मे और अधिक तेजस्वी दीसने लगा । (सललिय वर- कण्णपूर-त्रिराइयं) इसके कान में जो आभूषण - कर्णपूर पहिराने में आये थे वे चलते समय इधर उधर जब हिलत थे तब उनके द्वारा यह गजराज वडा ही सुहावना लगता था । (पल्ब ओचूल-महुयरकययार) इस पर जो झूल डाली गई थी वह पीठ से नीचे तक लटक रही थी। इसके कपोल स्थल से जो मदजल झर रहा था और उसकी सुगन्धि से जो भ्रमरसमूह उसके आसपास मडरा रहा था वह ऐसा मालूम होता था कि मानो इसकी शरण में अधकार ही आया है | (चित्त-परित्थोम - पन्यं) इसकी पीठ पर झूल के ऊपर जो छोटा सा आच्छादकवस्त्र डाला गया था यह सुन्दर वेलबूटियों से युक्त था । (पहरणा-वरण- भरिय-जुद्ध - सज्ज ) प्रहरण-गस्त्र और आवरण - कवच से सुसज्जित यह हाथी ऐसा मालूम पडता था कि मानो यह युद्ध के लिये ही सजाया गया है । (सच्छत्त) यह उत्रसहित था । तेयजुत्तं ) माथी वालावि तेभ्थी सपन्न ते रान वधारे तेजस्वी हेमाता हता (सललिय वर-वरणपूर - विराइय) तेना अनमा ? मालूष! - કપૂર પહેરાવવામા આવ્યા હતા તે ચાલતી વખતે જ્યારે આમતેમ હાલતા हता त्यारे तेनाथी या गणरान गहु न शोलायमान सागतो तो ( पल्ब ओचूल-महुयर-कयधयार ) तेना पर ने जूझ राभी डती ते थीथी नीचे सुधी લટકી રહી હતી તેના ગ ડસ્થલથી જે મદજલ ખરી રહ્યુ હતું તથા તેની સુગ ધથી જે ભમરાઓના સમૂહ તેની આસપાસ ફરતા રહેતા હતા તેથી खेम भयातु हेतु भो तेना शरशुमा अधार ४ आव्यो छे (चित्तपरिच्छेय पच्छय ) तेनी थी पर जूस उपर ने नानु ढाडेसु वस्त्र नाथ्यु उतुं ते सुहर वेसटियोथी युक्त हेतु (पहरणा षरण भरिय जुद्ध-सज्ज ) अहरશસ્ત્ર અને આવરણુ-કવચથી સુસજ્જિત આ હાથી એમ લાગતા હતા કે - 4x4
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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