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________________ औपपातिकवरे प्पभिइओ अप्पेगडया बंदणवत्तियं अप्पेगडया प्रयणवत्तियं एवं सकारवत्तियं सम्माणवत्तियं दंसणवत्तियं कोऊहलवत्तियं, अप्पेपरिच्छेद्यरूपकेयविक्रेयवस्तुजातमादाय लाभेच्छया देशातराणि बजता सार्थ वाहयन्ति योगक्षेमाभ्या परिपालयन्तीति, दीनजनोपकाराय मूल्धन ढत्या तान समर्मयन्तीति तथा, एत. स्प्रभृतय , एपु-'अप्पेगइया' अप्येकके-केचित्-'पदणरत्तिय चन्दनवृत्तिकम्-वन्दनाय वृत्ति =प्रवृत्तियस्मिन् कर्मणि तत् तथा, क्रियाविशेषणमिद, वन्दनार्थमि यर्थ , 'अप्पेगइया' अप्येकके केचित् 'पूयणवत्तिय' पूजनवृत्तिकम्-सेवाकरणार्थम्, 'सकारवचिर्य' सत्कारवृत्तिकम्-सत्कारार्थम्, 'सम्माणवत्तिय' सम्मानवृत्तिकम्-सम्मानार्थम्, 'दसणवत्तिय' दर्शनवृत्तिकम्-दर्शनार्थम्, 'कोऊहलवत्तिय ' कौतुहलवृत्तिकम्-कौतूहलार्थम् घी, तेल आदि वस्तुओं को, तथा-परिच्छेद्य-कसौटी आदि पर परीक्षा करके खरीदने वेचने __ योग्य मणि, मोती, मूगा, गहना आदि वस्तुओं को लेकर नफा के लिये देशान्तर में जाने वाले सार्थ (समूह) को ले जाते हैं, तथा योग (नयी वस्तु की प्रामि) और क्षेम (प्राप्त वस्तु की रक्षा ) के द्वारा उनका पालन करते है, गरीनों की मलाई के लिये उन्हें पूंजी देकर व्यापार द्वारा उन्हें धनवान बनाते है, वे मार्थवाह कहलाते हैं, ऐसे सार्थवाह लोग, इनमें से-(अप्पेगदया) कितनेक (वंदणवत्तिय) वन्दना करने के लिये (अप्पेगइया) कितनेक (पूयणवत्तिय) सेवा करने के लिये, (एव) इसी तरह (सकारवत्तिय) सत्कार करने के लिये, (सम्माणवत्तिय) समान करने के लिये, (दसणवत्तिय) दर्शन करने के लिये, (कोऊहलवत्तिय) पहिले कभी भी भगवान को नहीं देखे थे, अत उनको देखने के लिये, માપીને ખરીદવા વેચવાગ્ય દૂધ, ઘી, તેલ આદિ વસ્તુઓ તથા પરિચ્છેદથ કટી આદિ ઉપર પરીક્ષા કરીને ખરીદવા વેચવા ગ્ય મણિ, મેતી, પરવાળા, ધરેણા આદિ વસ્તુઓ લઈને નફે કરવા માટે દેશાતરમાં જવાવાળા સાર્થ (સમૂહ)ને લઈ જાય છે, તથા પેગ (નવી વસ્તુની પ્રાપ્તિ) અને ક્ષેમ (પ્રાપ્ત વસ્તુની રક્ષા) દ્વારા તેમનું પાલન કરે છે, ગરીબના ભલા માટે તેમને પુજી દઈને વ્યાપાર દ્વારા ધનવાન બનાવે છે તે સાર્થવાહ કહેવાય છે એવા मेला सार्थवाड , अभाना (अप्पेगड्या) मा (वदणवत्तिय) 480 ४२१॥ भाट (अप्पैगइया) मा (पूयणवत्तिय) सेवा ४२१॥ भाटे, (एव) मेवी रीत (सकारवत्तिय) सार ४२१। भाटे (सम्माणवत्तिय) सन्मान ४२११ भाटे (दसणत्तिय) शन ४२५१ भाटे (कोहलवत्तिय) पहेदा वा ५९ लगवानन नया
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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