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________________ ૪૬ औपपातिसूत्रे गोरा सेया सुभ-वण-गंध-फासा उत्तमवेउव्विणे। विविह-वत्थ-गंधमल्ल-धारी महिड्ढिया महज्जुइया जाब पंजलिउडा पज्जुवासंति ॥ सू०३७ ॥ 1 =3 पद्म पद्म-गोरा - पद, गौरवर्णा । 'सेया' वेता शुभकान्ति-शालिन । 'सुभ-पण्ण-गय- फासा ' शुभ-वर्ण- गन्ध-स्पर्धा । ' उत्तम वेडविणो' उत्तम निर्विग: उत्तम निकुर्वणाकारिण 'विविध-बत्य-गध-मल-धारी' निधि-यस- गन्ध-मान्य धाग्णि 'महिड्डिया' महद्धिका महासम्पत्तिशालिन । 'महज्जुडया' महायुतिका अतिशय धुतिमन्त | 'जात्र पजलिउडा पज्जुनासति' या प्राञ्जलिपुटा पर्युपासते- यावच्छन्दात् - पूर्वनत् निकृव, आदक्षिणप्रदक्षिण- चन्दन - नमनादय सृज्यन्ते, प्राञ्जलिपुटा = द्वाञ्जलय पर्युपासते - समन्तादुपासना कुर्वते ॥ सू०३७ ॥ मस्तक की शक्ति मुकुट की काति से दीप्त हो रही थी। (रत्तामा) इनकी काति अरुण-लाल थी, ( पउम-पम्ह-गोरा ) पर इनका शरीर कमल के केशरों के समान गौरवर्णवाला था । इसलिये (सेया) ये शुभ्रकाति से गोभित थे । (सुभ-गंध-वण्णफासा) इनके शरीर के गध, वर्ण और स्पर्श शुभ थे । ( उत्तम वेउन्त्रिणो ) ये उत्तम वैक्रिय शरीर करनेवाले थे। (विविह-वत्थ- गध-मह-धारी ) अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वस्त्रों को ये धारण किये हुए थे । गले में इनके सुगधित पुष्पों की माला सुशोभित हो रही थी। तथा ये (महिड्डिया ) महर्द्धिक थे। एव ( महज्जुइया ) महाधुतिधारी थे । ( जाव पंजलिउडा पज्जुवासति ) ये पूर्ववर्णित असुरकुमारों की तरह तीन बार अनलिपूर्वक सविधि वन्दना कर प्रभु की सेवा करने लगे || मू० ३७ ॥ भज प्राशित यई रह्या उता (मउड- दित्त - सिरया) भस्तनी प्रेशयति भुङ्कुटनी अतिथी हीथी उठती हुती (रत्तामा) तेभनी जति अणु-सास हुती (पत्र- म्ह-गोरा) यु तेभना शरीर ज्भसनादेश के गौरवाना हुता साथी (सेया) तेथे शुभ्रअतिथी शोलता हता (सुभ-गध-वण्ण- फासा) खेभना શરીરના ગન્ધ, વર્ણ અને પશ શુભ હતા ? (उत्तमउव्विणो ) तेथे उत्तम वैश्यि-शरीर धारण श्वावाजा ता (निविह-वत्थ--गध-मल्ल-धारी), અનેક પ્રકારના ઉત્તમેાત્તમ વસ્ત્રો તેમણે ધારણ કર્યા હતા, તેમના ગળામાં સુંગધિત पुण्योनी भाषा गोली ही हुती तथा तेथे (महिडिडया) द्धिती शेष (महज्जुइया) भडाधुतिधारी Šता (जाव पजलिडंडा पज्जुवासति) तेथे આદિ ૧૦ વિમાન હોય છે મૂળ સહિય, આદિના અનુક્રમે તેએના મુકુ ટમા ચિહ્નો હોય છે 4
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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