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________________ पीयूषयपिणी टीका सू ३१ महावीरस्थामि शिष्यवर्णनम ३०७ जाब विवागसुयधरा तत्थ तस्थ तहिं तहिं देसे देसे गच्छागच्छि गुम्मागुम्मि फड्डाफढेि अप्पेगइया वायंति, अप्पेगडया पडिरहुमायका आमन्, तेषु शिप्येषु 'अप्पेगडया' अप्येकके केचित्-'आयारधरा जाव विवागमुयधरा' आचारधरा यानद् विपाश्रुतधरा -आचारागादि-विपाकान्त-सर्वश्रुतधारिंग, इमे पूर्व वर्णिता , 'तत्य तत्य तर्हि तर्हि देसे देसे' तत्र तत्र तस्मिन् तस्मिन् देशे देशे-अत्र वीसया स्थानाहुल्यकथनासाधूनामधिकता अप्रतिबन्धविचरण च मूचितम् , तथा बहवो बहुविधप्रामनगरवनादिपु गता इति च गम्यते । 'गच्छाच्छि ' गमगच्छि-एकाचार्यपरिवारो गच्छ -गच्छेन गच्छेन विभन्य वाचनादिकं प्रवृत्तम्, इति विग्रह 'तत्र तेनेदमिति सरूपे' इत्यनेन गच्छागच्छि, इत्यस्य साधुनम् । एव 'गुम्मागुम्मि' गुल्मागुन्मि-गुल्म गछैकभाग , गुल्मेन गुल्मेन विभय दद वाचनादिक प्रवृत्तमिति गुन्मागुन्मि । 'फटाफर्डि' फड्डकाफड्डकि-फक लघुतगे गच्छैकमाग , फाकन फरकेन विभ'येट वाचनादिक प्रवृत्तम् , इत्यर्ये फहकाफहकि-एप प्रयोगपु समासे कृत पूर्वपदस्य दीर्घ समासान्त इच-प्रत्ययश्च । 'अप्पेगइया वायति' अप्येकके से अनगार भगवत थे, उनमें (अप्पेगइया) कितनेक (आयारधरा जाब विवागसुयधरा) आचारागसूत्र के धारक थे, 'यावत्' गन्द से कितनेक सूत्रकृताङ्ग से लेकर प्रभव्याकरण पर्यन्त सूत्रों में से एक २ सून के धारक थे और कितनेक विपासश्रुत के धारक थे, उपलक्षणसे कितनेक सबके भा धारक थे। (तस्थ तस्य तहिं तहि देसे टेसे) वे उमी बगीचे में भिन्न २ जगह पर (गन्छागच्छि) गच्छ गच्छरूप में विभक्त होकर, (गुम्मागुम्मि) गच्छ के एक २ भाग में विभक्त होकर (फाफर्डि) फुटकर फुटकर रूप में विभक्त होकर निराजते थे। इनमें से (अप्पेगइया वायति ) कितनेक सूत्र की वाचना प्रदान करते थे-सूर पढाते मनगार सावता , तमनामा (अप्पेगइया) 321४ (आयारधरा जान निवाग सुयधरा) माया11 सूत्रना धार sal, 'यावत् १०४थी उटमा सत्रहताथी લઈને પ્રવનવ્યાકરણ સુધીના સુત્રોમાંથી એક એક સૂત્રના ધારક હતા, અને કેટલાક विपासून धा२४ ता, Bाथी ४९४ मया सूत्राना था२४ ता (तत्य तत्थ तहिं तहिं देसे देसे) त यामा नुही नुही याये (गच्छागच्छि) ७ ७ ३५मा विभात 25, (गुम्मागुम्मि) १२छन। स४ ४ भागमा विसत यधने (फडाफ९ि) २८-८पाया ३५भा विमत न qिAVता उता मनामाथी (आपेगइया बायति) 32सा सत्रनी वायना मापता इता-सूत्र लावता
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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