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________________ १९७. __ पीयूषयपिणी टीका सु ३० ध्यानभेदयर्णनम् पुहुत्तवियक सवियारी १, एगत्तविय के अवियारि २, सुहुमकिरिए अप्पडिवाई ३,समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी४।सुक्कस्स णं झाणस्स त्यवतार प्रजमम् । यथा मलापगमेन शुचिताधमाभिसम्बन्धात् पट शुक्ल इत्युच्यते, तथा रागद्वेषमलापनयनानुचिताधर्मसम्बन्धाद् ध्यानमपि शुक्लमित्युच्यते, तच्चतुर्विध प्रजप्तम्, तद् यथा-'पुहुत्तरियके सवियारी' पृथक्त्ववितर्क सपिचारि १, 'एगत्तवियके अवियारि' एकचवितर्कमविचारि २, 'मुहुमकिरिए अप्पडिवाई' सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति, ३, 'समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी' समुच्छिन्नक्रियमनिवर्ति ४-इति । तत्र पूर्वगतश्रुतज्ञानानुसारेण ध्येयविशेषगतोत्पादादिनानापर्यायाणा द्रव्याथिका पर्यायार्थिकादिनानानयैरर्थव्यञ्जनयोग-कान्तिसहितानुचिन्तन पृथक्त्ववितर्कसविचारम् ॥ १॥ प्रकार का कहा गया है। जिस तरह मैल के दूर होने से वस्त्र निलकुल साफ हो जाता है और “शुक्लः पटः" इस प्रकार कहा जाता है, उसी तरह रागद्वेपरूपी मैल के अपगमसे ध्यान भी शुद्ध हो जाता है और इसीसे वह शुक्लप्यान कहा जाता है । (तं जहा) इसके वे चार प्रकार ये है (पुहुत्तरियके सवियारी) पृथक्वतर्कसपिचार, (एगतवियक्के अवियारि) एकत्वरितर्फ अविचार, (सहमकिरिए अप्पडिवाई) सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती, (समुच्छिन्न किरिए अणियट्टी) समुच्छिन्नक्रिय-अनिवर्त्ति । इनका वर्णन इस प्रकार है-पूर्वगत श्रुतज्ञान के अनुसार येयविशेषगत उत्पाद, व्यय एव ध्रौव्य आदि पर्यायों का द्रव्यार्थिक एव पोयार्थिक नयों से अर्थर क्रान्ति, व्यजनसक्रान्ति एव योगमक्रान्ति युक्त होकर विचार करना सो धक्त्वविर्तकसविचार शक्तव्यान का प्रथम भेद है ॥१॥ जिस तरह सिद्धगारुटिक आदि બન તેમજ અનુપ્રેક્ષાના ભેદથી સેળ પ્રકારનું કહેવાય છે જેવી રીતે મેલ જોવાઈ पाथ पर मिसद मा तय, अने “शुक्ल पट" से प्रारे કહેવાય છે, એ જ રીતે ગગડ્રેષરૂપી મેલ દૂર થઈ જવાથી ધ્યાન પણ શુદ્ધ 45 लय छ, अन ते ४२५थी तेन शुसध्यान ४वाय थे (त जहा) तेना यार ४१२ मा छ-(पहत्तवियके सवियारी) पृथत्ववितई-सपियार (एगत्तवियक्के अवियारि) गत्ववित मवियार (सुहुमकिरिए अप्पडिवाई) सूक्ष्मडिय--प्रतिपाती (समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी) समुछिन्नठिय-निवृत्ति પૂર્વગત શ્રુતજ્ઞાન અનુસાર ધ્યેયવિશેષથી થતા ઉત્પાદ, વ્યય તેમજ ધ્રૌવ્ય આદિ પર્યાના વ્યાર્થિક નથી, અર્થસ કાતિ, જનસ કાતિ તેમજ યોગસ કાતિથી યુકત થઈને વિચાર કરે તે પૃથકત્વવિતર્કસવિચાર શુકલધ્યાનને પ્રથમ પ્રકાર છે (૧)
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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