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________________ গীষিক্ষয় ४। धम्मज्झाणे चउबिहे चउपपडोयारे पण्णत्ते; तं जहा-आणा'आमरगतदोसे' नामग्णान्नदोष - मरगमंत्र तो मग्गान्त , मग्णपर्यन्तम अमनातानुतापन्य कालगौरिकादेग्मि या हिमादिषु प्रवृत्ति सा प्रतिग्य जागरगान्तदोष ।। यानषु आर्नगेटे था ये वर्मा तु गाये । 'धम्ममाणे चउबिहे चउप्पडायारे पण्णत्ते' धर्म यान चतुर्विध चतुप्रयतार प्रज्ञपम् । धर्म ग्रान चतुर्विधननयो नि स्वरूपलगालम्बनानुगारूपा प्रमाग यस्मिन ततनयोक्तम् । चतुष्प्रयातार च-स्वरूपादिपु एकस्य चतुष्प्रकारतया प्र यस्तागे विचार गीयवेन अस्तगण यम्मिन् तत, प्रयेक चतुर्विधमियर्थ , प्रज्ञ सम् । तर स्वास्य चातुर्ति यमाह-तद्यथा-'आणापिचए' आचारिचयम्-आजा-जिनप्रवचन, नस्या विचय -ययालोचन या ततथा, नागुगाऽनुचिन्तनमियर्थ , आनामे चिन्तयेत-आजा भगवत मनस्य पूनापरविशुद्धा निग्यशजीरकायहिताऽनया महाया महानुभागा निघुगजनदिका म प्रवृत्तिगाल रहना मो आमरणातढोप है । इन चार व्या म आर्त्त-रोद्र-ध्यान छोडने योग्य है, और धर्म यान व शुलयान ये दो यान ग्राय है । अब धर्म गान का भेद कहते हे -(धम्मज्झाणे चउचिह चउप्पडोयारे पाणते ) धर्मध्यान-स्वरूप, ल कग, आलापन, । अनुप्रेला क भद से चार प्रकार का है, इन चारा म भी एक एक के चार चार भेद हाते है । इस प्रकार कुल दमके १६ भेट हो जाते है। धर्मध्यान के चार स्वरूप ये है( आणाविचए, अवायविचए, विवागविचए, सठाणविचए,) अज्ञापिचय, अपायविचय, विपाशविचय और स्थाननिचय । तार्थकर प्रभु की आजा का निमम विचार किया जाय यह आजापिचय धर्मव्यान है। तार्थकर प्रभुको आजा का चिन्तश्न इसम इस प्रकार किया जाता है भगवान का आजारप प्रवचन पूनापर में निढाप है, निरमशेष जीयों का हितकत्ता પ્રવૃત્તિની રહેવું તે આપણાત દેપ ) આ ચારેય વ્યાનામા આપી ધ્યાન છેડવા યોગ્ય છે અને ધર્મ ય ન તેમજ શુકલધ્યાન એ બે ધ્યાન રહU ७२१यो-२ वे मध्याननी प्रहार -(धम्मज्झाणे चउन्विहं चउपडोयारे पप्णते) ध्यान, -१३५, RRY, PANन तेभर नुप्रेक्षाना लेहया ચાર પ્રકારનું છે જે ચામાં પણ એકએકના ચાર ચાર ભેદ થાય છે से गले सतनासो (१६) मे 45 लय (जहा) मध्यानना यार ४ •५३५ मा -( आणाविचए, अमायश्चिा , मिनागरिचा, मठाणविचए) RRE વિચય, અપાયવિચય, વિપાકચિય અને માનચિય, નીર્થ કર પ્રભુની આજ્ઞાને જેમાં વિચાર કરવામાં આવે તે આજ્ઞાવિય ધર્મધ્યાન તીર્થ - ૨ પ્રભુની આજ્ઞાનું ચિતવન એમ એ રીતે કરાય –ભગવાનનું આજ્ઞારૂપ પ્રવચન પૂવાપરમાં નિર્દોષ છે, તમામ જીવોને હિતકા છે, અનવદ્ય છે,
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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