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________________ २४६ औपपातिकमरे तद्वैयावृत्य करणीय, तस्मिन्निवृत्ते सति पुनस्तपसि संस्थाप्य । इति मक्षेपतोऽनवस्थाप्यतपोविधि । इद नवम प्रायश्चित्तम् ।। 'पारचियारिहे' पाराधिकाऽईम्-पार तीर तपसाऽपराधस्य अवतिगच्छति ततो दीश्यते य स पाराची, स एव पाराधिक , तस्य यदहं तत् पाराचिकाई रशम प्रायश्चित्तम् । यद्वा-पारमन्त प्रायश्चित्ताना तत उकृष्टतरप्रायश्चित्ताऽभापाद् अवति-गध्यती येशील साधु पाराश्चिकस्तदहं प्रायश्चित्तम् ।१०। पाराधिक सक्षेपतो द्विविध --आगातनापाराश्चिक , प्रतिसेवनापाराञ्चिकश्चेति । तत्र-तीर्थकर--सघ--श्रुताचार्य-गणधर-महदिकान् आशातयति य स कल्पता है। यदि उस साधु को रोगादि हो जाय तो जनता रोगादि की निवृत्ति न हो तबतक अन्य साधु उसकी वैयावृत्य कर सकते हैं। जब वह साधु रोग से निर्मुक्त हो जाय तो फिर उससे तपस्या करानी चाहिये । यह अनवस्थाप्याई नामक नवमा प्रायश्चित्त हुआ। 'पारंचियारिहे' जो साधु तप के द्वारा अपने किये हुए अपराध को पार करता है, अर्थात् अपराधजनित पापसे मुक्त होता है, फिर उसे दीक्षा दी जाती है, वह साधु 'पाराञ्चिक' है। उस साधु को पापविशोधनार्थ जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह 'पाराञ्चिकाई । प्रायश्चित्त है। अथवा जो साधु उत्कृष्टतर अन्य प्रायश्चित्त के न होने के कारण मात्र अन्तिम प्रायश्चित्त का अधिकारी होता है वह 'पाराञ्चिक' कहा जाता है। उस अन्तिम प्रायश्चित्त को 'पाराञ्चिकाई' कहते है। पाराश्चिक साधु दो प्रकार का है-पहला आशातनापाराञ्चिक, दूसरा प्रतिसेवना पाराधिक । जो तार्थफर, मघ, श्रुत, आचार्य, गणधर और लब्धिधारी की आशातना નથી જે તે સાધુને રેગાદિ થઈ જાય તે જ્યા સુધી રોગાદિની નિવૃત્તિ ન થાય ત્યા સુધી અન્ય સાધુ તેનુ વિયાવૃત્ય કરી શકે છે જ્યારે તે સાધુ રોગથી નિમુક્ત થઈ જાય ત્યાર પછી તેની પાસે તપસ્યા કરાવવી જોઈએ આ અનવસ્થાપ્યાë નામનુ નવમું પ્રાયશ્ચિત્ત થયુ 'पारचियारिहे'२ माधुतपा पोते ४२सा अपराधने पा२४२छ मात् અપરાધજનિત પાપથી મુક્ત થાય છે તેને ત્યાર પછી દીક્ષા દેવાય છે તે સાધુ 'पाराञ्चिक' छते साधुने पापविशनार्थ २ प्रायश्चित्त वाय छ 'पाराचिकाई' પ્રાયશ્ચિત છે, અથવા જે સાધુ ઉત્કૃષ્ટતર અન્ય પ્રાયશ્ચિત્ત ન હોવાના કારણ भारथी मतिम प्रायश्चित्तनो अधिकारी छे ते 'पाराश्चिक' पाय छ त मतिम प्रायश्चित्तने 'पाराचिकाई' उपाय छे. पाश्यि भाधु म प्रहारना છે-પહેલા આશાતના પારાચિક, બીજા પ્રતિસેવનાપારાચિક જે તીર્થકર, સઘ,
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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