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________________ यति मा हान हाता' मुण्डा प्रजिता अमर्याया की, प्रथमो अभपयांया । ૨૪૮ औषपातिकसूत्रे इत्ता, मुंडा भवित्ता, अगाराओ अणगारियं पच्चडया; अप्पेगइया अद्धमासपरियाया, अप्पेगडया मासपरियाया, एवं दुमासयदपि गुप्त-निधी निक्षिप्त धन प्रागासीत् तदपि प्रफटी यनि मार्य, उदारतापूर्वक 'दाण' दान दत्वा, 'दाइयाण' दायादेभ्य --स्वगोरिभ्य 'परिभायइत्ता' विभागगोदत्वा च 'मुडा भपित्ता' मुण्डा भूवाडव्यत गिरोटुचनेन, भारत क्रोधायपनयनन च मुण्टिता भूत्या, 'पव्यया' प्राजिता -श्रमगा जाता हयर्थ । 'अप्पेगठया' अप्येके-केचिद् ‘अद्धमासपरियाया' अर्द्रमासपर्याया कवधि प्रागवस्थायागेन अवस्थान्तराऽऽसौ पर्याय , स पर्यायो जन्मना दीक्षया चेति द्विविध , प्रथमो जमपर्याय , द्वितीयो दीक्षापर्याय , अत्र दीक्षापर्यायो गृह्यते, केचिढईमासाद् गृहीतन्यमपर्याया । 'अप्पेगइया । अप्येके-केचन, 'मासपरियाया' मासपर्याया -मासाऽधे कालाद् गृहीतश्रमणपर्याया । एवम्-अमुना प्रकारेण केचिद्विमासपर्याया , केचित् निमासद्रव्य था उसे भी बाहर निकाल कर, और उदारतापूर्वक उसे दान में व्यय करके तथा सगोत्रियों में विभक्त करके, मुडित हो-द्रव्यरूप से मस्तक लुचितकर एव भावरूप से क्रोधादिक का परिहार कर प्रवजित हुए थे। (अप्पेगदया) कितनेक (अद्धमासपरियाया) इनमे ऐसे थे जिन्हे दाक्षा ग्रहण किये केवल अर्धमास ही हुआ था। (अप्पेगदया मासपरियाया एर दुमासपरियाया तिमासपरियाया जाव एकारसमासपरियाया) इसी प्रकार कितनेक ऐसे थे जिन्हे दीक्षा लिये हुए दो मास हुए थे, कितनेक ऐसे थे जिन्हे दीक्षा लिये ३ मास हुए थे, कितनेक ऐसे थे जिन्हे चार, पाच, छह, सात, आठ, नौ, दश एव ११ ग्यारह કાઢીને અને ઉદારતાપૂર્વક તેને દાનમાં વ્યય કરીને તથા સાત્રિઓમા. વહેચી દઈને મુડિત થઈદ્રવ્યરૂપથી મસ્તકને લુચિત કરીને તથા ભાવરૂપથી अपाहिने छोडन प्रति यया तो (अप्पेगइया ) उसासे ( अद्धमास परियाया ) सेमा सेवा उता माने डासा सीधाने मात्र मर। महिना ४ थयो तो ( अप्पेगइया मासपरियाया एत्र दुमासपरियाया तिमासपरियाया जाय एक्कारसमासपरियाया ) तेवी०४ शत मासे तमामा सेवा उता જેઓને દીક્ષા લીધાને એક માસ થયે હોતે, કેટલાક એવા હતા કે જેઓને દીક્ષા લીધાને બે માસ થયા હતા, કેટલાક એવા હતા કે જેઓને દીક્ષા લીધાને ત્રણમાસ થયા હતા, કેટલાક એવા હતા જેમને ચાર, પાચ, છ, सात मा, नव, इश तभा मागमार मलिना या उता (अप्पेगड्या
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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