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________________ १३० औषपातिकसूत्रे ताणं सरणगई पडद्या अप्पडिहय-वर-नाण-दसण-धराणं वियहर्थिताना भव्याना रक्षसक्षणेभ्य । अतण्व तेषा भत्र्याना 'मरणगई। अरणगतिभ्य - आश्रयस्थानेभ्यः, 'पइट्ठा' प्रतिष्ठाभ्य -कालयेऽपि अपिनागिनान् स्थितेभ्य , 'दीवो' इत्यादीनि 'पइट्ठा' इत्यन्तानि चतुर्थ्यर्थं प्रथमान्तानि, अकवचन नपुमकव स्रौत्व चाविवक्षितम् । 'अप्पडियहय-वर-नाण-दसण-धराण' अप्रतिहतपर-ज्ञान दर्शन-धरेभ्य -प्रतिहत-भित्यायावरणस्पलित-न प्रतिहतम्-अप्रतिहत, ज्ञानञ्च दर्शनश्चेति ज्ञानदर्शने, यतोऽप्रतिहते अतएव वरे-श्रेष्ठे च ते ज्ञानदर्शने वरनानदर्शने केलज्ञानकेवलदर्शने, अप्रतिहते वरज्ञानदर्शने अप्रतिहतपरजानदर्शने, तयोर्धरा - अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरा - सम्यूगारगरहितकेवलनानकेवलदर्शनधारिगस्तेभ्य । 'वियदृच्छउमाण' व्यावृत्तच्छमभ्य - छायते-आनियते केवलज्ञानकेवलदर्शनगुणाद्यामनोऽनेनेति छद्म-जानावरणीयादिक कर्माप्टक, व्यावृत्त-निवृत्त छम येभ्यस्ते व्याव के जो त्राता है ऐसे प्रभु के लिये नमस्कार हो। (सरणगई) भव्यों के लिये आश्रयस्थानस्वरूप प्रभु के लिये नमस्कार हो । (पइहा) कालत्रय में भी अविनश्वरस्वरूप प्रभु के लिये नमस्कार हो (दीवो) यहा से लेकर (पइद्वा) तक के समस्त विशेषण चतुर्थी विभक्ति के अर्थ मे प्रथमान्त प्रयुक्त हुए है । यहा एकवचन, नपुसकत्व एव स्त्रीच अविवक्षित है। (अप्पडिहय-वर-नाणदसण-धराण) जो अप्रतिहत अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन के धारक है, उनके लिये नमस्कार हो। (वियदृच्छउमाण) जिनके द्वारा आत्मा का स्वभावभूत केवलज्ञान एव केवल दर्शन आवृत होता है ऐसे आठों ही कर्म 'छम' शब्द से गृहीत हुए है, यह छद्म जिनकी आत्मा से सदा के लिये दूर हो चुका है सेवा प्रभुन नभ२४१२ डो (ताण) ४ाथी अथात प्राणियाना र त्रा मर्थात रक्षा छे सेवा प्रभुने नभ-४।२ डो (सरणगई ) सव्याने भाटे माश्रय स्थानस्व३५ प्रभुने नभ२७१२ डो (पइट्ठा) त्राणे ४मा अविनाशी२१३५ प्रभुने नम २४१२ डो (दीयो) पडी थी बधने (पइट्ठा) सुधीनामा विशेष यतुथा वितिन અર્થમાં પ્રથમાન્ત વપરાયેલા છે, અહી એકવચન નપુસકત્વ (નાન્યતર જાતિ) सभी सीव [ न ति ] मविपक्षित छ [अप्पटिहय पर नाण दसण धराणे] 2 અપ્રતિહત અનતજ્ઞાન અને અને તે દર્શનના ધારક છે તેમને નમસ્કાર हो (वियट्रच्छउमाण) भनी । मामाना स्वाभूत पर शान तम०४ કેવલ દર્શન આવૃત થાય છે એવા આઠેય કમ “છ” શબ્દથી ગૃહીત થાય
SR No.009334
Book TitleAuppatiksutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages868
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size26 MB
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