SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अगारधमर्सञ्जीवनी टीका अ १ सू. ५८ अरिहतचैड़यशब्दार्थः ३१९ वेइया' इत्यस्यैव ग्रहणात्, अन्यतैर्थिकै. सहालापादिनिषेधस्त्वार्थिकार्य इति सूक्ष्मेक्षिकयाऽवधारणीयम् । " किञ्च चत्यशब्देन साधोरग्रहणे तैर्थिकान्तरपरीगृहीतानामवसन्नपार्श्वस्थादीना च साधूना वन्दन - नमस्करणे अतिमसज्जेता, तच्चानिष्टमित्युभयतः पाशारज्जुस्तस्माद 'अर्हचैत्यानि ' इत्यस्य 'अर्हत्प्रतिमालक्षणानि ' इत्यर्थकल्पन पूर्वापरप्रकरणस्याननुसन्धानपूर्वकत्वेन प्रामादिकमेव प्रकरणस्याभिधालत्तेण - ०" इत्यादिका सम्बन्ध सिर्फ " अन्नउत्थिए " के साथ ही है औरों के साथ नहीं, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि समुदित वाक्य के शेप (अवसान ) मे रहने के कारण " पुव्वि अणालत्तण - ० " आदिका 'अरिहत वेइयाइ 'के साथ सम्बन्ध होना नितान्त आवश्यक है और सूत्रकारका आशय भी यही है, अन्यथा ' अरिहतचेइयाइ 'का प्रयोग अन्तमें न करके सूत्रकार उस जगह पर 'अम्नउत्थिए ' का ही प्रयोग करते । तब रहा अन्यतैर्थिकों का निषेध, सो तो अन्यतैर्थिकपरिगृहीत अर्हत्साधुओंके साथ पहिले आलापादिका निषेध किया है तो खास अन्यतैर्थिकोंका तो कहना ही क्या है, इस प्रकार उनका तो अर्थापत्ति से ही निषेध हो जायगा । अतएव आगे पड़े हुए ' तेसिं ' पदके साथ भी विरोध नही पडता क्योकि तत् ' शब्द अव्यवहित पूर्वको ही पक्डनेवाला है, व्यवहितको नहीं, सो अव्यवहित जो है 'अरिहत चेहयाई' उसका अर्थ आप मूर्ति लोगे तो उनका अशन पान आदिके साथ सम्बन्ध असभव हो जायगा । " -- "अन्नउत्थिए "नी माथे ४ छे, मीलयोनी साथै नथी तो प्रेम अहेवु थो यागु जरामर नथी, आरशु समुहित वायना शेष (अत)मा रहेवाने भरणे "पुव्वि अणालतेण - ०" महिना “अरिहतचेइयाइ" नी साथै समध थव। यो नितान्त मावश्यक हे मने सूत्ररनो आशय यागु मे छे, मन्याथा "अरिहत्चेइयाइ" ने प्रयोग तमा न उरता सूत्रभर मे "अन्न उत्थिए" नो प्रयोग ४४२ હવે રહ્યો અન્યોથિકને નિષેધ, તે તે જે અન્યૌર્થિક પરિગૃહીત અત્યાધુઓની સાથે પહેલા આલાપાદિના વિષેધ કર્યાં છે, તે પછી ખાસ અન્યચિકેત્તુ તે કહેવુ જ શુ ? એ રીતે તેમના તા અર્થાત્તથી જ વિષેધ થઇ જશે એટલે આગળ આવેલા 'तेसिं' पहनी साथै पशु विरोध भावतो नथी अरस्थ डे 'तत्' शब्द मव्यवहित पूर्वने ४ उडनाश छे व्यवस्तिने नहि ते गव्यवहित ने 'अरिहतचेडयाइ' छे, તેના અર્થ આપ મૂર્તિ કરશે! તે તેને અશન પાન આદિની સાથે સધ અસ ભ વિત મની જશે
SR No.009331
Book TitleUpasakdashangasutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages638
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy