SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 990
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संपत्य मुकासात्य 'जार आस विपनदियास ' या आश्यं विपत्पा ज्यस्य 'बौदारिफशरीरस्य नो वर्णदेवी यां, नो रूपहतो नो पलहेतो, नो विषयहेतो , आहारमाहरतिभाहार करोति, 'एगाप मिद्विगमणसपावणट्ठयाए' एकस्याः सिद्धिगमनसमापणार्यतायाः 'नन्नत्य ' अन्यत्र न, मोक्षमाप्तिरूप प्रयो जन विहाय वर्णादिप्रयोजनेन आहार नाहरतीति भारः। सनिर्ग्रन्यो वा निग्रंथी या खलु इहमये घेर ' हमरे एमम्मिन जन्मन्पर पहना अमणानां बहनों श्रमणीना यहना पारकाणा यहना धारिफाणाम् 'अच्चणिज्जे' अर्चनीय %D आदरणीय 'जार पीसहस्सा यापद् व्यतिनियति चातुरन्तससारशान्तार मुल्लहयिष्यति-ससारपार गमिप्यतीत्यर्थः ।। वाले, यावत् अवश्य परित्याग होने की योग्यतावाले इस औदारिक शरीर में कान्ति विशेप बढाने के लिये पल बढाने के लिये, अथवा विषय की प्रवृत्ति चालू रग्वने के लिये आहार नहीं लेता है पिन्तु-एककेवल सिद्धि गति नामक स्थान को प्राप्त करने के लिये ही आहार लेता हैं। मोक्ष प्राप्तिरूप प्रयोजन को जोड़कर और किसी कान्ति आदि बढाने के अभिप्राफरूप प्रयोजन से निन्ध श्रमण श्रमणी जन अहार नहीं लिया करते हैं-(सेण) ऐसे निर्ग्रन्थ श्रमण श्रमणी जन (इहभवे चेय यहण समणाण बहण समणीण वरण सावयाण यण सावियाण अच णिजे जाव वीइवइस्सइ) इस भव में ही अनेक श्रमण, अगणी, जना द्वारा तथा श्रावक श्राविकाओ द्वारा अर्चनीय-आदरणीय यावत् इस चतुर्गतिरूप ससार कान्तार को पारकरने वाले रोते हैं। (एव खल સવવાળા, પિત્તાસવવાળા, શુકાસવવાળા ચાવતું ચોક્કસ નષ્ટ થનારા આ દારિક શરીરમાં કાતિ વિશેષની વૃદ્ધિ માટે, બળની વૃદ્ધિ માટે અથવા તો વિષયની પ્રવૃત્તિ ચાલુ રાખવા માટે આહાર લેતા નથી પણ ફક્ત એક જ સિદ્ધગતિ નામક સ્થાનને મેળવવા માટે જ આહાર ગ્રહણ કરે છે મેક્ષપ્રાપ્તિ રૂપ પ્રજન વગર બીજી કઈ કાતિ વગેરેની વૃદ્ધિની અભિલાષા રાખીને નિગ્રંથ-શ્રમણીજન આહાર ગ્રહણ કરતા નથી (ખ) એવા નિથ अभय श्रमशीन (इहभवे चेव बहूण समणाण समशीणं वगं सावयाण वह ग सावियाण अच्चणिज्जे जाव चीइवइस्सइ) આ ભવમાં જ ઘણુ શ્રમણ શ્રમણીજને વડ તેમજ શ્ર વક-શ્રાવિકાઓ વડે અર્ચનીય, આદરણીય યાવત આ ચતુતિ રૂપ સ સાર કાતારને પાર કરી જનારા હોય છે
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy