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________________ मैनगोरधर्मामृतवर्षिणो टी० म० १८ सु सुमादारिकावरितवर्णनम् ६६ रह' निस्तरत-पारगन्छन्, 'तचे सन्न भणइ ' तदेवसर्व भणति यथा धन्य सार्थवाहो ज्येष्ठ पुत्रमवदत् , तथैवायमपि तदेव सर्वे क्ययति, यावत् अर्थस्य वर्मस्य पुण्यस्य च आभागिनो भविष्यथ । ततः खलु धन्य सार्थवाह ' दोच्चे' द्वि तीय पुनधनपालनामा एवमवदत्-मा खलु हे तात ! अस्माक ज्येष्ठ भ्रातर 'गुरु देवय ' गुरुदैवत-देव-गुरुसदृशम् , जीविताद् व्यपरोपयामः-मारयाम', यूय खलु हे तात ! 'मम' मा धनपालनामान जीविताद् व्यपरोपयत यावत् अर्थादिफलभाजो भविष्यथ । 'एव =अनेन प्रकारेण 'जार पचमेपुत्ते' यावत् पहुच कर वहा अपने मित्रादि परिजनों के साथ मिल सके । तथा धन धर्म एव पुण्य के भोक्ता बन सके। "त चेव सव्व भणड " इसका तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार धन्यसार्थवार ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, धनदत्त से कहा-उसी प्रकार धनदत्त ने भी अपने पिता से वैसाही कहा(तएण धपण सत्यवाह दोच्चे पुत्ते एव वयासी-माण ताओ ! अम्हे जेठे भायर गुरुदेवय जीवियाओ ववरोवेमो-तुम्भेण ताओ ! ममं जीवि. याओ ववरोवेह, मस च सोणिय च आहारेह, अग्गामिय अडविं णित्य. रह त चेव सन्ध भणइ जाव अत्यस्स जाव पुष्णस्स आभागी भवि स्सह ) इसके बाद धन्यमार्यवाह से उसके द्वितीय पुत्र ने इस प्रकार कहा-हे तात । आप हमारे गुरु देवनातुल्य ज्येष्ठ भाई को जीवन से रहित मत कीजिये किन्तु आप तो हे तात ! मुझे ही जीवितसे रहितकर दीजिये और मेरे ही रक्त एव मास को आप ग्वाईये पीईये-ताकि इस अग्रामिक अटवी से पार हो सके इत्यादि पहिले जैसा ही इसने પિતાના મિત્ર વગેરે પરિજનની સાથે મળી શકે તેમજ ધન ધર્મ અને पुयना सेता मनी शो "त चेर सव्य भणइ" मा म माम थाय છે કે જેમ ધન્ય સાથ વાહે પિતાના મોટા પુત્ર ધનદત્તને કહ્યું તેમજ ધનદત્ત પણ પિતાના પિતાને કહ્યું (तएण धण्ण सत्यवाह दोच्चे पुत्ते एवं वयासी-माण ताओ ! अम्हे जेद्वे भायर गुरूदेवय जीवियाओ ववरोवेमो, तुम्भेग ताओ ! मम जीवियाओ ववरोवेह, मस च सोणिय च आहारेह, अम्गामि य अडवि गित्यरह त चेव सन्न भणइ जाव अत्यस्स जाव पुण्णस्त आभागी भविस्मह) । ત્યારપછી ધન્ય સાર્થવાહને તેના બીજા પુત્રે આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે તાત ! તમે અમારા ગુરુદેવતા જેવા મારા ભાઈને જીવન રહિત ન કરો પણ હે તાત! તમે મને જ મારી નાખે અને મારા જ લેહી અને માસને તમે ખાઓ પીઓ જેથી તમે આ ગામ વગરની અટવીને પાર કરી શકે, આમ
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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