SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 934
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६६ पातामा 'पदिसुगेरि' मतिमन्ति-सीर्यन्ति, पतिथुय, चिमात तस्कर बोरसेना पतिवया अर्थात् चोरसेनापतिपदे भगिरियानि । तत' पर मनिलातः चोरसेना पतिर्जातः, फीदृशः ? इत्याह- अहम्मिए गार' अधार्मिको याचन्-विजयचोर सेनापतिवदधार्मिको यापदधर्म के सभा निरनि । ततः ग्यलु स विगतः चोर सेनापति 'चोराण य जार' चोराणा न याम्योरपारदारिकादीनां च 'कुडगे' फुडगः आत्रयस्थान नाऽपि आसीत । स स तत्र सिंहगुहायां चोर पल्ल्या पश्चाना चोरशताना च एस यथा नियन्तथर सायान् विजयवत् पश्च सताना चोराणामुरारि आधिपत्य कुर, राजगृहस्य दक्षिणपौरम्त्यम् अग्निकोणस्थ स्वीकार कर लिया। और स्वीकार कर के उस चिलात चोर को अन्त में उस सिंहगुहा नामकी चोर पल्ली का उन्हों ने चोर सेनापति के रूप में अभिषेक कर दिया। (तएण से चिलाए चौरसेणाचई जाए अहम्मिए जाव विएर तण्ण से चोर से० चोराण य जाव कुटगे यावि होत्या, से ण तत्थ सीरगुहाए चोरपल्लीए पचण्ट चोरसयाण य एवं जरा विजओ तदेव सव्व जाव रायगिरस्स दाहिणपुरथिमिरल जणवय जाव णित्याण निद्धण फरेमाणे विहरह) इस तरह यह चिलात चोर सेनापति यन गया। चोरसेनापति थनकर यह विजय चोर सेनापति की तरह अधार्मिक यायत अधर्मकेत जैसा हो गया। अतः वह चिलात चोर सेनापति चोरों का यावत् पारदारिक आदिकों का कुडग की तरह वासों के वन के समान-आश्रयस्थान बन गया और उस सिंहगुहा नामकी पल्ली में पाचसी चोरों का आधिपत्य करता हुआ विजय तस्कर અર્થને સ્વીકારી લીધો અને સ્વીકારીને છેવટે તે ચિલાત ચોરને તે સિંહગુહા નામની ચોરપલ્લીને તેમણે ચોર સેનાપતિના રૂપમાં અભિષેક કરી દીધા (तएण से चिलाए चोरसेणावई जाए अहम्मिए जीव विहाइ तएण से चोर से० चोराण य जाव कुड गे मावि होथा, सेण तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पचण्ह चोरसयाण य एव जहा विजओ तहेव सव्व जाव रायगिहस्स दाहिण पुरथिमिल्ल जणवय जाव णित्थाण निद्धण करेमाणे विहरह) આ પ્રમાણે તે ચિલાત ચાર ચોર સેનાપતિ થઈ ગયે ચોર સેનાપતિ બનીને તે વિજય ચાર સેનાપતિની જેમ અધાર્મિક યાવત્ અધમંકેતુ જે થઈ ગયે તેથી તે ચિલાત ચાર સેનાપતિ ચેરોને યાવત પારદારિક વગેરેને કુડગની જેમ-વાસના વનની જેમ-આશ્રયસ્થાન બની ગયે
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy