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________________ ५६० मातामेकपा - यथा अधः यथापूर्व द्वाररतीमागता तथाऽत्रापि वोयम् यावत् सदिशन्तु अत्र यावदित्यनेनैवोध्यम् - रत नगरी मागत्य कृष्णेन गत्यता स्नाता भोजना सुवास तामात् इनि, ततस्तां कृष्ण पृच्छति सदिशन्तु =स्थयन्तु खलु हे पडणा एव चुक्ता समाणी, हत्थिग्ध दुरुहट, दुरुहित्ता जहा रेहा जब सदिसतुण पिवा । किमागमणपओगण ? तरण सा कोंती कण्ट घासुदेव एव चयामी - एव गलु पुत्ता ! तुमे पच पहना सिया आणत्ता, तुमच ण दाहिणड्डूभरह जान विदिम न गच्छतु ? तण से कण्हे वासुदेवे कोतीदेवि एवं वयामी अपूईवयणा ण पित्या ! उत्तम पुरिसा वासुदेवा, पलदेवा, चक्करही त गच्छतु ण देवाणुनिया ! पच पडवा दाहिणिल्ल वेलाउल तत्थ पडुमहर णिवेसतु मम अद्विसेवगा भवतु त्ति कटु कतीदेवि सकारेह, सम्माणेह, जान पडिसिज्जेह) पाडु के द्वारा इस प्रकार कही गई वह देवी राथी पर चढी और चढ कर जिस प्रकार पहिले यह दारवती आई थी उसी तरह अन भी यह वरा पहुँची । यहा यावत् शब्द से इस प्रकार पाठका सबन्ध लगा लेना चाहिये - जब कुनी द्वारावती नगरी में आई-तप कृष्ण वासुदेवने उनका खूब मनमाना सत्कार कियो । बडे ठाट बाट से उनका प्रवेशोत्सव मनाया | कुतीने स्नान आदि दैनिक कार्यों से निबट कर आनद के सा चतुर्वि आहार किया बाद में विश्राम के निमित्त सुग्वासन पर (तरण सा कोंती पडणा एव वृत्ता समाणि, इत्थिख दुरूह, दुरूषिता जहा ट्ठा जान सदिसतु ण पिउत्था । किमागमणपओयण ? तरण सा कौती कण्ह वासुदेव एव वयासी- एव खलु पुत्ता ! तुमे पच पडवा णिन्निसा आणत्ता, तुम चण दाहिणड भरद जाव विदिस वा गच्छतु ? तरण से कण्हे वासुदेवे कौती देवि एव वयासी - अपूई वयणा ण पिउत्था उत्तमपुरिसा देवा, वलदेवा, चकवट्ठी गच्छतु ण देवाणुपिया ! पच पडवा दाहिणिल वेला उल्लतत्थ पडुमहुर णिवेसतु निगा भवतु तिकट्टु कौती देवि सकारे, सम्माणेइ, जान पडिविसज्जेइ) આ પ્રમાણે પાડુ વડે આજ્ઞાપિત થયેલી કુતી દેવી હાથી ઉપર સવાર થઈ અને સવાર થઈને પહેલા જેમ તે દ્વારાવતી નગરી ગઈ હતી તેમજ અત્યારે પણ પહાચી અહીં યાવત્ શબ્દથી આ જાતને પાઠ સમજવા જોઇએ કે જ્યારે કુ તી દ્વારાવતી નગરીમા આવી ત્યારે કૃષ્ણુવાસુદેવે તેમને ખૂમ જ સત્કાર કર્યો અહુ જ ટાઢથી તેમના પ્રવેશા સવ ઉજવ્યેા કુતીએ પણ સ્નાન વગેરે નિત્યકર્મોથી પરવારીને સુખેથી ચતુર્વિધ આહાર કર્યા ત્ય भ
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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