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________________ - भनगारधर्मामृतपिणा टीका म० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५५७ ऽस्मान् एवमवादी-गच्छत खलु यूय हे देवानुपियाः ! गङ्गामहानदीमुत्तरत, यावत् तिष्ठत । ताव अह एव तहेन 'जार चिट्ठामो' एनं यथा कृपणवासुदेवस्य वाक्य पूर्वमुक्त तथैवान गोध्यम्-तावदह सुस्थित लवणाधिपतिं पश्यामीति । 'जाव चिट्ठामो' यावतिष्ठामः-अत्र यावच्छब्देनैवं योजनीयम्-ततः खलु वय कृष्णवासुदेवेनैवमुक्ताः सन्तो नौकया गगामहानदीमुत्तीर्य, कृष्णो बाहुभ्यां गङ्गा महानदीमुत्तरितु समर्थो न वेति विज्ञातु ता नोका सगोपितपन्त , ततः कृष्ण प्रतीक्षमाणास्तिप्ठाम इति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः मुस्थित लवणाधिपति दृष्ट्वा, 'त चे सव्व ' तदेव सर्व-गडामहानयास्वटे समागत्य, एकाथिका नावसुनो-मात इस प्रकार है-जन हमलोग अमरकका नगरी से पीछे आकर २, दो लाग्य योजन विस्तार वाले लवणसमुद्र को पार कर चुके (तएण) तर (से कण्हे अम्हं एव वयासी) उन कृष्ण वासुदेव ने हमलोगों से इस प्रकार कहा-(गच्छह ण तुम्भे देवाणुपिया! गगा महाणइ उत्तरह जाव चिट्ठह-तार-अह एव तहेव जाव चिट्ठामो) हे देवानुप्रियो ! तुम लोग चलो और गगा महानदी को पारकरो-तय तक में सुस्थित देव से मिलकर और आज्ञा प्राप्तकर आता है। कृष्ण वासुदेव द्वारा इस प्रकार आजप्त हुए हमलोगों ने नौका से गगा महानदी को पार करके वही पर उस नौका को छुपा दिया-इस अभिप्रायसे कि देखें कृष्ण वासुदेव अपने हाथों से तैर कर इस गगा महानदी को पार कर ने में समथे हो सकते हैं या नही । नौका को छिपाकर हमलोग वही पर उनकी प्रतीक्षा करते हुए ठहरे। (तरण से कण्हे वासुदेवे सुहिय लवणादिवइ વાત આ પ્રમાણે છે કે જ્યારે અમે અમરક કા નગરીથી પાછા વળતા ૨ લાખ જન જેટલા વિસ્તારવાળા લવણ સમુદ્રને પાર કરી ચૂકયા (તgn) ત્યારે ( से कण्हे अम्ह एव वयासी) ते शुवायुवे अभने मा प्रभारी छु है(गच्छदण तुभे देवाणुप्पिया । गगा महाणइ उत्तर ह जाव चिट्ठह-तान अह एव तहेर जाव चिट्ठामो) देवानुप्रियो ! तमे त मन मा महानहीन पार કરે તેટલામાં હું સુસ્થિત દેવને મળીને અને તેમની પાસેથી આજ્ઞા મેળવીને આવું છું આ પ્રમાણે કૃષ્ણ વાસુદેવ વડે આજ્ઞાપિત થયેલા અમે નૌકા વડે ગગા મહાનદીને પાર કરીને ત્યાં જ તે નોટાને છુપાવી દીધી નૌકાને છુપાવવા પાછળ અમારે એ જાતને આશય હતો કે કૃષ્ણ વાસુદેવ પિતાના હાથેથી તરીને ગગા મહાનદીને પાર કરી શકે છે કે નહિ? નૌકાને છુપાવીને અમે त्या तेभनी प्रतीक्षा ४२ता 15 गया (वरण से कण्हे वासुदेव सुद्रियं
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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