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________________ अनगारधर्मामृतवपिणो टी० प १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ५४७ प्रभुः समर्थ उत्तरीतुम् , इति कृत्वा गङ्गामहानया वाहुभ्यामुत्तरणे कृष्णवासु. वदेस्य सामर्थ्यमस्ति, नास्ति या तद् विजानामीति विचार्य एकाथिका नाव= नौका 'मति' गोपयन्ति । गोपयित्वा कृष्ण वासुदेव 'पडियालेमाणा' प्रतिपालयन्त प्रतीक्षमाणाः तिष्ठन्ति । ततः खलु स कृष्णो वासुदेवः सुस्थित देव लपणाविपतिं पश्यति-सुस्थितेन साफ मिलति दृष्ट्वा तमापृच्छथ यौव गङ्गामहानदी तौवोपागच्छति, उपागत्य एकाथिकाया नावा-नौकाया मार्गणगवेपणं करोति, कृत्वा, एकाथिका नावमपश्यन् एकेन वाहुना रथ सतुरग-सहाश्व, त्तए उदाहुणो पभू उत्तरित्तए तिकटूटु एगडियाओ णावाओ मेंति, शूमित्ता कण्हं वासुदेव पडिवाले माणा २चिट्ठति, तएण से कण्हे वासुदेवे सुहिय लवणाहिवइ, पसिइ, पासित्ता जेणेव गगा महाणई तेणेच उवागच्छद) जय पार होकर वे तट पर पहुंच चुके-तय परस्पर में उन्हों ने ऐसा विचार किया-हे देवानुप्रियों । देखो कृष्ण वासुदेव गगो महानदी को हाथों से तैरकर पार करने में समर्थ हो सकते हैं या नहीं हो सकते हैं ? इस प्रकार विचार करके उन्हों ने उस एकाथि नोका को कृष्ण वासुदेव के आने के लिये वापिस उस पार भेजा नहीं वहीं पर छिपा दिया। और छिपाकर कृष्ण वासुदेव की प्रतीक्षा करते वे वही ठहरे रहे। उधर-कृष्ण वास्तुदेव लवणसमुद्राधिपति सुस्थित देव से जाकर मिले और उसकी आज्ञा लेकर जहां गगा नदी थी वहा आये । (उवागच्छित्ता एगढियाए सव्वओ समता मग्गणगवेसण करेई, करित्ता एगठिय अपासमाणे एगाए पाहाए रह सतुरगं ससारहिं गेण्डा महानई वाहाहि उत्तरित्तए, उदाहु णो पभू उत्तरित्तए तिकटु एगढ़ियाओ णावाओ णूमेति, मित्ता कण्ह वासुदेव पडिवालेमाणा२ चिट्ठति, तर ण से कण्हे वासुदेवे मुट्ठिय लवणाहिनइ, पासइ, पासित्ता जेणेव गगा महाणई तेणेव उवागच्छइ ) પાર ઉતરીને જ્યારે તેઓ કિનારે પહોંચી ગયા ત્યારે તેમણે પરસ્પર વિચાર કર્યો કે હે દેવાનપ્રિય! કચ્છવાસુદેવ ગગા મહાનદીને હાથો વડે તરીને પાર કરી શકે કે નહિ ? આમ વિચાર કરીને તેમણે તે “એકાર્થિ નૌકાને કૃષ્ણ વાસુદેવને લાવવા માટે પાછી મોકલી નહિ પણ ત્યાજ છુપાવી દીધી અને છુપાવીને તેઓ ત્યાજ કૃષ્ણ વાસુદેવની પ્રતીક્ષા કરતા રોકાઈ ગયા કૃષ્ણવાસુદેવ લવણ સમુદ્રાધિપતિ સુસ્થિતદેવને મળ્યા અને તેની આજ્ઞા પ્રાપ્ત કરીને જતાં ગગા નદી હતી ત્યાં આવ્યા (उवागच्छित्ता एगढियाए सबभो समता मग्गणगवेसण करेइ, करिता एगट्ठिय अपाममाणे एगाए वाहाए रह सतुरग ससारहिं गेण्डइ, एगाए वाहाए
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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