SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 742
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२८ वासुदेव 'परयलपायपदिए रतलपादपति-संगोजित करतनद्वयः, पादयोः पतिनः मन् गरण उपेरिद-प्रायम्पमामितिया उपगी भवेत्यर्थः । हे देवानु मिय! 'पणियाला' प्रणिपतितावा-गाजीपगिनिपतितानां वत्सलाः स्नेहान्त खलु उतमरुपा गान्ति प्रणामगागंण महापुरगाः प्रमीदन्तीत्यर्थः । ततस्तदनन्तर म मनामी रामा द्रौपया दपा एनम उक्तस्यनस्पमय प्रति श्रृगोति-नीकगेति, मतिथुत्य ग्नातो यापन शरणम्पति द्रौपदीवानमनुमृत्य पद्मनाभो राना मण गदसम्म शरणमुपगत इत्यर्थः। उपत्य करतलपरिगृहीत दशनाव शिर आरत मम्नलिकापसमागप्रकारेण, आदीद-दृष्टा घा पहुँच कर तुम दोनो राध जोड़ कर उनके चरणों में गिर जाना (पणिवायरच्छलो ण देवाणुप्पियो उत्तमपुरिमा ताण से पउमनामे दोबई देवीए एमट्ट पडिणेड, पढिसुणित्ता हाजार सरण उवेइ उरित्ता, करयलापरवयासी दिहाण देवानुपियाण इट्टी, जाव परक्कम त सामेमि ण देवाणुप्पिया।) हे देवाणुप्रिय! उत्तम पुरुष जो हुआ करते हैं वे प्रणि तितवत्सल छुआकरते है-प्रणाममात्रसे महापुरुष प्रमन्न हो जाया करते है-अर्थात् नमन करनेवाले को वे नहीं मारते तथ पद्मनाभ राजाने द्रौपदी देवी के इस शिक्षाप्रद कथनरूप अर्थको स्वीकार कर लिया। स्वीकार कर बाद में उसने स्नान किया, यावत् वह द्रौपदीके कहे अनुसार कृष्णवासुदेव की शरणमें परच गया। शरण में पहुँच कर उसने अपन दोनों हाथों को जोडकर अजलि बनाई और आदक्षिण प्रदक्षिण करक उसे शिरपर रग्वा । फिर इस प्रकार बोला-आप देवानुप्रियकी मेंने ऋद्धि તેમજ મને આગળ રાખીને ચાલો ત્યા પહેચીને તમે બંને હાથ જોડીને તેમના પગે પડજે (पणियाय वच्छलाण देवाणुप्यिो उत्तमपुरिसा, तएण से पउमनाभे दाव३५ देवीए एयम पडिसुणेइ, पडिसुणिता हाए जाव सरण उवेइ, उवित्ता करयल एर बयासी,दिवा ण देवाणुप्पियाण इडी जान परक्कमे त खामेमि ण देवाणुपिया હે દેવાનુપ્રિય ! ઉત્તમ પુરૂ તેમની સામે વિનમ્ર થયેલા માણસો પ્રલ એકદમ વત્સલ થઈ જાય છે ફક્ત નમસ્કાર કરવાથીજ તેઓ પ્રસન્ન થઈ જ છે આ બધું સાંભળીને પદ્મનાભ રાજાએ દ્રોપદીના આ શિક્ષાપ્રદ કથન ?' અર્થને સ્વીકારી લીધે સ્વીકાર કરીને તેણે સ્નાન કર્યું થાવ તે પદને કહ્યા મુજબ જ કૃષ્ણ-વાસુદેવની શરણમા ગ શરણુમાં જઈને તેણે પોતાન! અને હાથ જોડીને અ જલિ બનાવી અને આદક્ષિણ પ્રદક્ષિણા ઉપર મૂકી અને ત્યારબાદ તે આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy