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________________ ५२३ अनगारधर्मामृतार्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् तिभाए हते ' बलविभागो इत.-सैन्यस्य तृतीयाशो हतमथित यावत दिशोदिश प्रतिपेषित-प्रतिनिवृत्तः पलायित इत्यर्थः । ततस्तदनन्तर खल स कृष्णो वासुदेवो धनु परामशति गृह्णाति, परामृश्य ' वेढो ' वेष्ट वर्णकः धनुपियक वर्णन जम्दीपप्रज्ञप्तिनो वियमित्यर्थः, 'धणु पूरेइ ' धनुः पूरयति धनुपि गुणमारो. पयति पूरयित्वा यनुः शब्द करोति तत खलु तस्य पद्मनाभस्य द्वितीयवार बल तिभाए ' बलनिभाग लस्य रीन्यस्य तृतीयोभागस्तेन धनुः शब्देन ' इयमहिय परनिगडिय वियद्धयपडागे' हयमथितप्रवरनिपतितचिह्न-बजपताको यावद् का त्रिभाग उस शख के शब्द से रत हो गया मथित हो गया यावत् एक दिशो से दूसरी दिशा की तरफ भाग गया। तएण से कण्हे वास्तुदेवे धणु परामुसइ, वेढोवणु पूरेड, पूरित्ता धणुसद्द करेद) इसके बाद कृष्ण वास्तुदेवने धनुप को उठाया। इस धनुप का वर्णन ज बूद्वीप प्रज्ञप्ति में किया गया है । मो वहा से जानना चाहिये उठाकर उन्होंने उस पर ज्या का आरोपण किया फिर उसे चढाया-सो उससे शब्द हुआ (तपण तस्स पउमनाभस्स दोच्चे लइभाए तेण धणुसहण हयमरिय जाव पडिसेहिए, तएण से पउमणाभे राया तिभागलावसेसे अस्था मे अयले, अवीरिए अपुरिमकारपरक्कमे अधारणिजत्ति कटु सिग्घ तुरिय जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छ) तब उस पद्मनाभ राजा की सैन्य का तृतीयभाग उस धनुष के शब्द से हत हो गया, मथित हो गया, उस की प्रवर चिन्ह स्वरूप ध्वजापताकाएँ सन गिर गई यावत् શથી જ હત થઈ ગયે, મછિત થઈ ગયે યાવત્ એક દિશા તરફથી બીજી [n त२५ नासी गयो (तएण से कण्हे वासुदेवे धणु परामुसइ, वेढो घणु पूरेइ, पूरित्ता धणुसद करेइ ) त्या२५छी शु-पामुद्देव धनुष व्यु मा ધનુષનું વર્ણન જ બૂઢીપ પ્રજ્ઞપ્તિમાં કરવામાં આવ્યું છે જિજ્ઞાસુઓએ ત્યાથી જાણી લેવું જોઈએ ઉઠાવીને તેઓએ તેની ઉપર પ્રત્યે ચા ચઢાવી ત્યારપછી ધનુષને ચઢાવ્યું અને તેનાથી શબ્દ થયે (तएण तस्स पउमनाभस्स दोच्चे वलइभाए तेण धणुसदेण हयमहिय जाव पडिसेहिए, वएण से पउमणाभे राया तिभागवलावसेसे अत्थामे अगले, अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अवारणिज्जत्ति क्टु सिग्ध तुरिय जेणेव अमरकका तेणेर उवागच्छद) - તે પદ્મનાભ રાજાની સેનાને ત્રીજો ભાગ તે ધનુષના શબથી જ હત થઈ ગ, મથિત થઈ ગયે, તેની પ્રવર ચિહ-સ્વરૂપ વજા પતાકાઓ બધી પડી
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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