SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 707
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०३ भनगारधर्मामृतर्यापणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् एकतः एकस्मिन् स्थाने मिलति, मिलिला स्कन्धावारनिवेश सैनिकानामावास करोति कृत्या पौपधशालामनुप्रविशति, अनुमविश्य " सुद्विय देन " मुस्थितसुस्थितनामान देर लमणममुद्राधिष्ठित मनसि कुर्वन् स्मरन् तिष्ठति, तत• खलु कृष्णस्य वासुटेक्स्याएमभक्ते परिणममाणे मुस्थितो देव पागतः, जागत्य वदतिहे देवानुप्रियाः ! भणन्तु कथयन्तु यन्मया कर्तव्यमिति ततः खलु स कृष्णो वासुदेव मुस्थितदेवमेवमवादी-एव खलु हे देवानुपिय ! द्रौपदी देवी यावत् पद्मनाभस्य भवने सहता, तत्-तस्मात् खलु स हे देवानुपिय ! मम पञ्चभि: पाण्ड. सार्धं 'अप्परस ' आत्मपष्ठस्य-आत्मा-जह पप्ठो या तस्य समुदायस्य-अस्माकं पण्णामित्यर्थः, पण्गा रयाना लपणसमुद्रे मार्ग वितर-देहि, येनाह ममरकडा राजपानी द्रौपद्या देव्याः 'स्व' प्रत्यानयनरत् गच्छामि । वहा पहुँचकर वे पांच पांडवों के साथ एक स्थान पर समिलित हुए। समिलित होकर उन्होंने अपनी सेना को ठहर ने का स्थान नियत किया-स्थान नियतकर के फिर वे पीपधशाला में प्रविष्ट हो गये वहां प्रविष्ट होकर उन्हो ने लवण समुद्र के अधिपति सुस्मित देय का स्मरण किया। इसके बाद जय कृष्णवासुदेव का अष्टमभक्त समाप्त हो रहा था-तय यह सुस्थित देव उनके पास आयो-और कहने लगा हे देवानुप्रिय! कहिये-मेरे लायक क्या काम है ? (तण्ण से कण्हे वासुदेवे सुट्टिय एव वयासी एव खलु देवाणुप्पिया। दोवई देवी, जार पउमनाभस्स भवणसि साहरिया, तएण तुम देवाणुप्पिया मम पवहि पडवेहि सद्धि अप्पास्स छण्ड रहाण लवणसमुद्दे मग्गं वियरेहि, जाण अह अमरककारायहाणी दोवईए कवं गच्छामि, तएणं से सुहिर देवे कण्हं હતું ત્યા પહેચ્યા ત્યા પહેચીને તેઓ પાશે પાની સાથે એક સ્થાને એકત્ર થયા એકત્ર થઈને તેમણે પિતાના સૈન્યના પડાવનું સ્થાન નક્કી કર્યું સ્થાન નક્કી કરીને તેઓ પૌષધશાળામાં પ્રવિણ થયા ત્યાં જઈને તેઓએ લવણ સમુદ્રના અધિપતિ સુસ્થિત દેવનું સ્મરણ કર્યું ત્યારબાદ જ્યારે કૃણવાસુદેવને અષ્ટમ ભક્ત પૂરો થઈ રહ્યો હતો, ત્યારે તે સુસ્થિત દેવ તેમની પાસે આવ્યું અને કહેવા લાગ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય! બેલે, મારા લાયક કામ છે ? (तण्ण से कण्हे वासुदेवे सुट्टिय एष वयासी एव स्खलु देवाणुप्पिया। दोनईदेवी, जाब पमनाभम्स भरणसि साहरिया, तएण तुम देवाणुप्पिया मम पचहि पडवेहि सद्धि अप्पउहस्स छह रहाण लवणसमुद्दे मग्ग पियरेहि, जण्ण अह अमरकका रायहाणी दोवईए कूव गच्छामि, तएण से मुटिए देवे कण्ह
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy