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________________ अनेगरोधामृतपिणी टीफा० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणम् ४९९ आहयति, शब्दयित्वा-एवमवादीत-गच्छ खलु त्व हे देवानुप्रियाः ! हस्तिनापुर पाण्डोराज्ञ एतमर्थ निवेदय-एव खलु हे देवानुप्रिय ! धातकीपण्डे द्वीपे 'पुरत्यिमद्धे' पौरस्त्यार्थे पूर्व दिग्भागवर्तिनि अमरककाया राजधान्या पद्मनाभभवने द्रौपधा देव्याः मवृत्तिरूपलव्या, तत्-तस्मात् गच्छन्तु पञ्च पाण्डवाश्चतुरङ्गिण्या सेनया सा सपरिता 'पुरथिमवेयालीए' 'पौरस्त्यवेलायां-पूर्व दिग्वतिनि लवणसमुद्रे मा 'पडिवालेमाणा' प्रतिपालयन्तः-प्रतीक्षमाणा स्तिष्ठन्तु, ततस्त दनन्तर स दूतो यावत् पाण्डोरग्रे गत्वा कृष्णनासुदेनोस्त पचन भणति-कथयति 'पब्बिालेमाणा चिट्ठद' अय भाष:- पातकीपण्डे द्वीपे पूर्वदिग्भागर्तिनि अमरककाया राजपान्या पपनामभरने द्रौपया' प्रवृत्तिरुपलब्धा, तस्मात् पञ्च पाण्डइस प्रकार कहे जाने पर अपनी उत्पतनीविद्याका स्मरण किया। स्मरण करके फिर वे जिस दिशा से प्रकट हुए थे उसी दिशा की और चले गये। (तएण से कण्हे वासुदेवे दूय सहावेइ सहावित्ता एवं क्यासी गच्छण तुम देवाणुप्पिया हत्यिणाउर पडत्त रणो ण्यम निवेदेहि) इसके बाद उन कृष्ण वासुदेव ने दूत को बुलाया-बुलाकर उससे ऐसा कहा-हे देवानुप्रिय ! तुम हस्तिनापुर नगर जाओ-वहां पाड राजा से ऐसा करना-(एव खलु देवाणुप्पिया! घायइमडे दीवे पुरित्यिमद्धे अमरककाए रायहाणीए पउमणाभभवणसि दोबईए देवीए पउती उचलद्वा-त गच्छतु पच पडवा चाउरगिणीए सेणाए सहि सपरिवुजा पुरस्थिमवेयालीए मम पडिबालेमाणा चिट्ठतु)हे देवानुप्रिय ! वह वक्तव्य विपय यह है-धातकी पंड नाम के द्वीप में पूर्व दिग्भागवर्ती दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र मे वर्तमान अमरकका नाम की राजधानी मे पद्मनाभ राजा વિદ્યાનું સ્મરણ કર્યું સ્મરણ કરીને પછી તેઓ જે દિશા તરફથી આવ્યા डता ते हि त२६ पा२वाना 25 गया (तएण से कण्हे वासुदेवे दूय सदावेइ, सदायित्ता एव पयासी-गच्छ ण तुम देवाणुप्पिया । हत्यिणाउर पडुस्त रण्णो एय? निवेदेहि ) त्या२५छी ते पर वासुदेव इतने माराव्या भने બોલાવીને તેને આ પ્રમાણે કહ્યું કે હે દેવાનુપ્રિય ! તમે હસ્તિનાપુર નગરમાં જાઓ-અને ત્યા પાડુ રાજાને આ પ્રમાણે કહે કે (एव सलु देवाणुप्पिया! धायइसडे दीवे पुरथिमद्धे अमरफकाए राय हाणीए पउमणाभा भवणसि दोषईए देवीए पउत्ती उपलखा-त गच्छतु पच पडवा चाउर गिणोए सेणाए सद्धि सपरिखुडा पुरस्थिमवेयालीए मम पडिवाले माणा चितु) पानुप्रिय ! पातही ५७ नाम द्वीपमा पूर्व दिशा त२५ना क्षिाधी ભરત ક્ષેત્રના વિદ્યમાન અમરક કા નામની રાજધાનીમા પદ્મનાભ રાજાના ભાવ me
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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