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________________ मनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० १६ द्रौपदीवरितनिरूपणम् ततः खलु स पाण्डू राजा द्रौपद्या देव्याः कुत्रापि अति वा यावत् प्रत्तिम् अलभमानः कुन्ती देवीं शब्दयति शब्दयित्वा एवमवादीत्-गच्छ खलु त्वं हे देवानुपिये ! द्वारवती नगरी कृष्णस्य वासुदेवस्य एतमय निवेदय-सुसपमुप्ता द्रौपदी केनापि हता नीता कूपादौ प्रक्षिप्ता वेति न ज्ञायते इत्येतद्रूप वृत्तान्त क्षय, कृष्णः खलु पर वासुदेवो द्रौपद्या मार्गणगवेपण कुर्यात् अन्यथा न ज्ञायते द्रोपद्या देव्याः अति वा प्रवृत्तिं वा क्षुत्तिं वा उपलभेत । पास भेजदी। इसके बाद जब पाडराजा ने द्रौपदी देवी की कही पर भी श्रुती यावत् प्रवृत्ति नहीं पाई तब उन्हो ने कुति देवी को बुलाया(सद्दावि०ए०वयासी) और बुलाकर उन से ऐसा कहा-(गच्छहण तुम देवाणुप्पिया ! वारवइ नयरिं कण्हस्स वासुदेवस्स एयम णिवेदेहि, कण्हेण पर वासुदेवे दोवइए मग्गणगवेसण करेजा-अन्नहा न नजई, दोवईए देवीए सुती वा सुती वा पवत्ती वा उवलभेन्ना) हे देवानुप्रि यो! तुम द्वारावती नगरी में कृष्ण वायुदेव के पास जाओ-और उनसे इस अर्थका निवेदन करो कि सुख प्रसुप्त द्रौपदी को किसी ने हरलिया है। हरण कर उसे कहीं पहुचा दिया है या किसी कुएँ में या खड्डे में डाल दिया है। पता नहीं पड़ता है। वे कृष्ण चोसुदेव अवश्य २ ही द्रौपदी को मार्गणा गवेपणा करेंगे। नही तो द्रौपदी देवी को श्रुति, क्षुति अथवा प्रवृत्ति हमें प्राप्त हो जावेगी-यह नहीं कहा जा सकता है। श्रुति यावत् प्रवृत्ति भी ना त्यारे तभी तो पान मातापी (सदा __ वि० ए० वयासी) अने मोसावीन तेभने २ प्रमाणे धु (गच्छह ण तुम देवाणुप्पिया ! वारवद नयरिं काहस्स वासुदेवस्स एयमट्ट णिवेदेहि, कण्हेण पर वासुदेवे दोवईए मग्गणगवेसण करेज्जा अन्नहा न नज्जई, दोवईए देवीए सुती वा खुती वा पबत्ती वा उवल भेज्जा) હે દેવાનુપ્રિયે ! તમે દ્વારાવતી નગરીમાં કૃષ્ણ વાસુદેવની પાસે જાઓ અને તેમને આ પ્રમાણે વિનતી કરી કે સુખથી સુતેલી દ્રૌપદીનું કોઈએ હરણ કરી લીધું છે હરણ કરીને તેને કયાક મૂકી દીધી છે અથવા તે કઈ કૂવામાં કે ખાડામાં નાખી દીધી છે ન જાણે શું થઈ ગયુ છે? કૃષ્ણવાસુદેવ મને ખાત્રી છે કે ચોક્કસ દ્રૌપદી દેવીની માગણા ગષણા કરશે નહિંતરદ્રૌપદી દેવીની ઐતિ, કુતિ અથવા પ્રવૃત્તિની જાણ અમને થશે એવી શકયતા જણાતી નથી,
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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