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________________ भनगारधामृतवपिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचरितनिरूपणन् पद्मनाभमापृच्छति, पृष्ट्वा यावत् पानाभेन राज्ञा सत्कार प्राप्य प्रतिगतः उत्पत्तनी विद्यया गगनमुड्ययन् प्रतिगत इत्यर्थः । तत खलु स पद्मनाभो राजा कन्ठुल्लनारदस्थान्तिके एतमयं अत्याआकये निशम्य हवार्य द्रोपद्या देव्या रूपे च यौवने च लापण्ये च मूच्छितःआसक्तः, गृद्धः = लोलुपः, ग्रथित:-निवचित्तः, अयुपपन्न. = एकाग्रचित्त सन् यत्रैव पोपधशाला तौवोपागन्छति, उपागत्य पौषधशाला प्रमाज्यं यावदप्टम मक्त कृत्वा 'पूर्वमगतिक ' पूर्वमित्र देवम् एव वक्ष्यमाणमकारेण आदीत् एव खलु हे देगनुप्रिय ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भारत वर्षे हस्तिनापुरे पाण्डवभार्या द्रोपदी देनी यावत्-उत्कृप्टशरीरा वर्तते, तत्-तस्माद् इच्छामि खलु हे देवानुप्रिय ! भी नहीं है। ऐसा में जानकर ही कह रहा है। द्रौपदी के जैसी कोई भी नारी नहीं है । उस प्रकार कहकर वे कच्छुल्ल नारद वहा से चलने के लिये अभिलापी बन गये-तब उन्होंने पद्मनाभ राजा से जाने के लिये पूछा पूछकर यावत् वे वहा से पद्मनाभ राजा से सत्कृत होकर उत्पतनी विद्या के प्रभाव से गगन तल को उल्लंघन करते हुए वापिस चले गये। इसके बाद वे पद्मनाभ राजा कच्छुल्ल नारद के मुख से इस समाचार रूप अर्थ को सुनकर और उसे हृदय में धारण कर द्रौपदी देवी के रूप, यौवन एव लावण्य मे मृच्छित ४ यन गये, यावत् उनका चित्त उन में बिलकुल एकाग्र हो गया। इस तरह होकर, वे जहा पौपधशाला थी वहा गये । ( उवगच्छित्ता पोमहसालं जाव पुष्वसगड्य देव एव चयासी एव खलु देवाणुप्पिया! जद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे जाव सरीरा त इच्छामि ण देवाणुप्पिया ! નથી આ પ્રમાણે કહીને તે કચ્છલ નારદ ત્યાંથી ચાલવા માટે તૈયા થઈ ગયા તેમણે પદ્મનાભ રાજાને જવા માટે પૂછ્યું, પૂછીને યાવત ત્યાથી તેઓ પદ્મનાભ રાજાની પાસેથી સત્કૃત થઈને ઉત્પતની વિદ્યાના પ્રભાવથી આકા શને ઓળગતા જતા રહ્યા ત્યારપછી તે પદ્મનાભ રાજા કછુcલ નારદના મુખથી આ સમાચારને સાભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને દ્રૌપદી દેવીના રૂપ, યૌવન અને લાવણ્યથી મૂછિત ૪ થઈ ગયા, યાવત્ તેમનું મન તેમા એકદમ ચાટી ગયુ આ સ્થિતિમાં તેઓ જ્યા પૌષધશાળા હતી ત્યાં ગયા (उवागच्छित्ता पोसहसाल जाव पुन्बसगइय देव एव वयासी एव खलु देशणुप्पिया ! जयू दीवे दीवे भारहे वासे इत्थिणाउरे जाव सरीरात इच्छामि ण देवाणप्णिया! दोबई देवी इहमाणिय तएण पुरसगइए देवे पमनाभ एवं
SR No.009330
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size48 MB
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